Thursday 14 December 2023

भारतीय संसद पर गैरकानूनी प्रवेश या फिर हमला

आज बहुत दिनों के बाद फिर लिखने का मन कर रहा है। विशेष रूप से जब हमारी जन्मभूमि के निर्वाचित प्रतिनिधियों को टीवी पर हाथ-पायी करते हुए देखा / पाया। मैं सोच रहा था कि जब राष्ट्रीय चुने हुए प्रतिनिधि मार पीट कर सकते हैं और कानून को हाथ में लेंगे तो देश के सामान्य नागरिक से क्या अपेक्षा है।

कल भारतीय संसद (निचले सदन) पर दो नवयुवक गैर कानूनी रूप से घुसे और सदन को रंगीन धुएं से भर दिया। इन युवाओं का कृत्य तो कानून देखेगा ही | मेरी राय में सभी संबद्ध लोगों को कानून के कड़े से कड़े रूप को दिखाना चाहिए और उन्हें कानून की ताकत का एहसास भी करवाना होगा। ताकी भविष्य में ये युवाओं को उनके गैर जिम्मेदार कृत्य के गंभीर परिणामो से रोबरूह हो सके।

मगर मेरा प्रश्न अपने राष्ट्रीय चुने हुए प्रतिनिधियों से है कि क्या उनकी ये जिम्मेदारी नहीं है कि वो सामान्य जनता को कानून का पालन करते हुए दिखायी दें | क्या उनका मार पीट का कृत्य शोभनिया था ये उनको सोचना है। क्योंकि जब पब्लिक ठीक से इसका विशलेषण करेगी तो वो सवाल भी पूछेगी कि आखिर ये सब हुआ कैसे और आपने कानून हाथ में कैसे ले लिया।

अभी और सत्य आना बाकी है क्योंकि जब कोर्ट में केस चलेगा तो परत दर परत आरोपी के मकसद का भी खुलासा होगा और ये भी पता चलेगा कि कैसे सुरक्षा में चूक हो गई।

अपनी रक्षा का कानून क्या इतना लचीला हो सकता है कि हम लोग आसानी से कानून को अपने हाथ में ले? जबकी किसी के जीवन पर कोई संकट ना पड़ रहा हो | क्या हमारे प्रतिनिधि उस युवा को केवल पकड़ नहीं सकते थे और मारना क्यों जरूरी था? सजा देने का काम तो कानून का है | हमारे सार्वजनिक प्रतिनिधि क्या ऐसा नहीं समझते? और कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी क्या सरकार की नहीं होती है? क्या पूर्व धमकी की नजरंदाज तो नहीं किया गया सरकार द्वार अपने ओवर कॉन्फिडेंस में।

क्या कोर्ट हमारे प्रतिनिधियों के गैर कानूनी कृत्यों के लिए भी फैसला करेगा ?  क्या उनको हम और हमारा समाज कानून से ऊपर मान चुका है? ये सोचना मैं आपके विवेक पर छोडता हूं और ये भी आपके सोचने के लिए रखता हूं कि आखिर देश का नौजवानों में ये देश द्रोही भावनाएं आ क्यों रही हैं। 

मेरी समझ में ये दोनों ही विषय कानून समीक्षा में चर्चित होने चाहिए, अभी देखना बाकी है।

Monday 1 January 2018

सुनिए प्रधान मंत्री मोदी जी

प्रधान मंत्री मोदी जी आज अंग्रेजी का नया साल है और आपका सत्ता में भी लगभग ३ साल हो गया है. आपकी वाक् पटुता भी अब पुरानी सी  हो गयी. अब समय आ गया है की आपसे भी कुछ प्रश्न पूछे जाएँ. तो सोचा आज कुछ आपको याद करा दें की आप ने भारत की जनता से क्या वादे किये थे २०१४ के चुनाव के दौरान और उसके तुरंत बाद.  परन्तु सबसे पहले आपको और देश की जनता को हार्दिक शुभ कामनाएं नव वर्ष पर. 

सबसे ऊपर तो नाम आता है 'अच्छे दिन' और 'मौनी बाबा' का.  यदि याद न आ रहा हो तो थोड़ा विस्तार से....चुनाव जीतने के तुरंत बात (यदि मुझे सही याद पड़ता है तो ) सबसे पहले आपने बड़ोदरा (गुजरात) के विजय रैली में कहा था 'अच्छे दिन........ ' और जनता ने उत्तर दिया  था.....'आ गए'..... या यूँ कहें की आपने अपनी बात जनता के मुँह से कहलवाई थी की 'अच्छे दिन आ गए'. और दूसरी बात सारे चुनाव प्रचार के दौरान आपने तत्कालीन प्रधानमत्री डॉ मनमोहन सिंह जी को हमेशा मौनी बाबा का ही खिताब दिया था और आप कहते फिरते थे कि........ अरे भाई डॉ साहेब / प्रधानमत्री जी कुछ तो बोलिये....  

अच्छे दिन का तो मैंने बाद में थोड़ा विस्तार से विश्लेषण किया है और अगर मौनी बाबा का ध्यान किया जाये तो अभी हाल में मुंबई में भारत की युवा पीढ़ी के २१ लोग आग की भेंट चढ़ गए और आपकी एक ग्लैमरस लोक सभा सदस्या जी इसका कारण भारत की बढ़ती हुई जनसँख्या करार दे देती हैं. गौ हत्या के नाम पर कुछ सामाजिक तत्त्व गुंडा गर्दी करते फिर रहे हैं और आप मौन हैं. या फिर कुछ समय पहले रेलवे के एक पुल पर भगदड़ मचने से कुछ नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं और आपके मुँह से एक शब्द भी  नहीं निकलता 

आज आप (गुजरात और हिमाचल चुनाव के दौरान ) कह रहे हैं की मैं नीच जाती का हूँ (श्री मणि शंकर अय्यर साहेब के अल्प या सिमित हिंदी भाषा के प्रयोग /ज्ञान पर चुटकी लेते हुए) या फिर लोगों को याद दिला रहे है कि कभी कांग्रेस का १८ राज्यों में सरकार थी और आपकी याने बीजेपी की अब १९ राज्यों में सरकार हो गयी है. क्यों मासूम भारतीय जनता का मन बहला रहे हैं.  यह आप भी और कोई भी समझ दार व्यक्ति समझता है कि अय्यर साहेब का अर्थ वह तो कतई नहीं था जो आपने जनता को समझया था. और उससे भी विशेष यह कि आपके कुछ भी कहने पर आप के ख़ास सिपहसालार, या कहें श्री अमित शाह जी और उनकी टीम जैसे बहुत सारे प्रोफेशनल राजनीतिक मैनेजर, शुरू हो जाते हैं उसका अर्थ और उनके भी अंदर का अर्थ बताने के लिए देश के सारे अखबार और टेलीविज़न चैनलों पर. 

इसके बात अगर और बातें याद ही कराई जाये तो उनमे 'परिवारवाद', 'काला पैसा', 'आदर्श गाव, गाय-गंगा ('नमामि गंगे'), 'स्वच्छ भारत', 'बुलेट ट्रैन,  'योग', 'मंदिर', 'स्वदेशी'  इत्यादि इत्यादि। ..... 

परिवारवाद, कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गाँधी जी को आपने हमेशा राजकुमार कह कर पुकारा और डॉ मनमोहन सिंह को रबर स्टाम्प. मगर आपको याद दिला दें की बीजेपी में भी राजकुमारों का भी जलवा है, वह चाहे हिमाचल से हों,  कर्णाटक से, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से हों या फिर पंजाब से. 

काला पैसा, डॉ मनमोहन सिंह जी की देश भक्ति पर प्रश्न उठाना आपको शोभा नहीं देता है. आपको अभी भी सिद्ध करना है की आपकी देश भक्ति डॉ मनमोहन सिंह जी देश भक्ति से बड़ी न सही तो समकक्ष तो अवश्य है. क्योंकि उनका एक अर्थशास्त्री के रूप में योगदान पूरे देश के विकास में अभी कोई भूला नहीं है. आप तो उन्हें पाकिस्तान के दूत से मिलने पर देश द्रोही तक करार देते हैं.  आप एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अभी भी काम कर रहे हैं और आपके योगदान का सम्पूर्ण देश के विकास के लिए आंकलन किया जाना बाकी है.

स्वच्छ भारत, एक बानगी, मेरा जन्म स्थान मूलतः लखनऊ शहर है. और अभी भी मैं नियमित रूप से भारत भ्रमण पर लखनऊ यदा कदा जाता हूँ और अभी हाल के लखनऊ प्रवास के दौरान में एक बच्चे को  लखनऊ के एक मुख्य बाजार, आईटी कॉलेज, में खुले में शौंच करते हुए देखा है. 

आदर्श गांव, अभी हाल के सर्वे मैं पता चला था की आपके ही पार्टी के संसद सदस्यों द्वारा केवल ७ प्रतिशत पैसा ही खर्च हो पाया है देश को उनकी ही लोकसभा क्षेत्र के आदर्श गांव के लिए मिले पैसे का. 

स्वदेशी, अमेरिका के इतने चक्कर आपके जैसे राष्ट्रवादी पार्टी द्वारा उचित प्रतीत नहीं होता और तकनीक कौशल और स्वरोजगार को बढ़ावा  देना निसंदेह आपेक्षित है. 

मंदिर, मैं स्वयं भी ९० के दशक में राम मंदिर आंदोलन से जुड़ा रहा हूँ और बीजेपी के पितामह श्री अडवाणी जी की रथ यात्रा के सूत्रधार के रूप में आपके योगदान और अनुशासन का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूँ. इसका कारण है कि हिन्दू बहुसंख्यक देश में भगवान् राम का मंदिर नहीं बन पाया तो विश्व में और कहाँ बनेगा. परन्तु यह क्या १९ राज्यों में सरकार बनाने के बाद भी मंदिर मुद्दे पर आपकी चुप्पी प्रश्न चिन्ह तो लगाएगी ना. और फिर क्या हुआ गाय - गीता और गंगा का. यह सोचने का विषय तो है ही. 

और योग तो ऐसा लगता है की शायद बाबा रामदेव अथवा बाबा बालकृष्ण की ही भारत को देन है तभी तो आज उनका व्यावसायिक क्षेत्रफल विश्व के बड़े बड़े उद्द्योग्पतिओं को अचंभित किये हुए हैं. ऐसा न हो कि भारत की एक अद्भुत और वैज्ञानिक देंन यूँही व्यावसायिक शोषण का शिकार हो जाये।  

बुलेट ट्रैन का तो कहना ही क्या, देखिये क्या होता है जब करोड़ों रुपये की लागत से बनने के बात वह कितनी सार्थक सिद्ध होती है यात्री सुविधाओं और लागत के सन्दर्भ में . यह भी सम्भावना है कि बुलेट ट्रैन निर्णय भी वर्तमान रेलवे के स्थिति और सुविधाओं को बढ़ाने या दुरुस्त करने के निर्णय के ऊपर फिस्सडी ही साबित हो. 

आपसे इन अच्छे दिनों की आशा नहीं है क्योंकि भारत की जनता ने बड़ी आशाओं से आपको भारत का एक आम आदमी समझ कर भारत के प्रधान मंत्री (या आपकी भाषा में प्रधान सेवक) के पद पर आसीन किया था. आपसे यह अपेक्षा थी की आप जो बोलेंगे और जो करेंगे उसमे हम, आम आदमी, अपनी जीवन की रोजमर्रा की समस्याओं का प्रतिबिम्ब देखेंगे परन्तु आपके हाल के चुनाव प्रचार के दौरान राजनितिक प्रपोगंडा से निराशा और हताशा हाथ लगी. कहाँ गया आपका विकास का मंत्र? आपका कभी भी लक्ष्य १९ राज्यों में सरकार बनाने का नहीं था, यह तो इंदिरा जी की कांग्रेस का था लक्ष्य और इसी को पाने के लिए भारत की शायद राजनीति भ्रस्ट और सत्ता लोलुप हो गयी थी और उसने आया राम और गया राम की संज्ञा प्राप्त की. 

यह समय हमारे भारत देश के लिए एक और संक्रमण का काल है, यानी ट्रांजीशन पीरियड।इसका मतलब है की भारत अब निश्चित रूप से विकसित देश बन रहा है. आप, प्रधान मंत्री (सेवक) जी,  इन सब स्वचालित गतिविधिओं का श्रेय नहीं ले सकते। इस संक्रमण काल में भी कुछ विकास की चीज़ें अपने आप हो रही हैं जिसमे आप के होने या किसी अन्य कर्तव्य निष्ट प्रधानमत्री के होने में कोई विशेष अंतर पड़ता नहीं दिख रहा है. यदि आप यह श्रेय लेते भी हैं तो यह वैसा ही होगा जैसा आजादी के बाद पंडित नेहरू ने सारा श्रेय अपने आप ही ले लिया था चाहे वह रेलवे की विस्तार नीति हो, भाकरा नांगल बांध से बिजली  उत्पादन की और या फिर तत्कालीन राज घरानो का भारतीय गणतंत्र में विलय का विषय .

आप तो अर्जुन और आचार्य द्रोण की चिड़िया की आँख की तरह अपनी दृष्टि अपने ही बनाये हुए लक्ष्यों पर जमाये रखिये तो निश्चित रूप से स्वचालित विकास की इस गंगा के स्वरुप को बनाने में आपके योगदान को भी एक प्रधान सेवक के रूप में याद किया जायेगा। भूलिए नहीं कि भारत के प्रधान सेवक से भारत की आम जनता की क्या आपेक्षाएँ हैं. 

इसलिए प्रधान मत्री जी मैं सिर्फ आगाह कर रहा हूँ क्योंकि लोकसभा के अगले आम चुनाव बहुत दूर नहीं हैं और हमारे देश की यह जनता कितनी भी धैर्यवान क्यों न हो इसका भी धैर्य चुकता है और कहीं आपको उसकी कीमत न चुकानी पड़ जाये और आप फिर से बीजेपी के वर्ष १९८० के लोकसभा चुनाव प्रदर्शन की ओर न चल पड़ें। यह भुलाने का भ्रम तो बिलकुल न रखियेगा कि आपका राजनीतिक विकल्प देश में नहीं है क्योंकि यही गलती शायद श्रीमती इंदिरा गाँधी जी ने की थी और उन्ही के सशक्त नेतृत्व के किले को कुशल प्रशाशक मोरारजी भाई और लोक नायक जय प्रकाश जी ने बड़ी ही  आसानी से ध्वस्त कर दिया था.


Friday 21 April 2017

हिंदी साहित्य का इतिहास - IV : भक्तिकाल १४००-१७०० - भाग दो

भाग दो 

आज का लेख भी भक्तिकाल को ही समर्पित है

जैसा मैंने भक्ति काल के भाग-एक में लिखा है कि अपने इस भाग में हम भक्ति काल के सम्प्रदायों, कवियों और निर्गुण-सगुण  पर चर्चा करेंगे.....

जैसा मैंने  पूर्व में लिखा है कि भक्तिकाल भक्ति की वैचारिक भूमि पर स्थित है. यह भक्ति दो धाराओं में प्रवाहित हुई है - निर्गुण और सगुण। इन दोनों में अंतर केवल इतना है की निर्गुण मत के इष्ट न तो अवतार लेते हैं और ना ही लीला ही करते हैं, अर्थात वे निराकार हैं. वहीँ दूसरी और सगुण मत के इष्ट अवतार लेते  हैं और लीलाएं भी करते हैं. अतः सगुण मतवाद में विष्णु के २४ अवतारों में से अनेक की उपासना होती थी, यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय और लोक पूजित अवतार राम और कृष्ण ही हैं.

१. भक्ति के सम्प्रदाय
मुख्यत: चार संप्रदाय प्रचलित थे और वह हैं
- श्रीसम्प्रदाय - आचार्य रामानुजाचार्य, रामानंद आदि और इसमें राम की भक्ति और उपासना की प्रमुखता है
- ब्रहम्म संप्रदाय - आचार्य मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु और इसमें कृष्ण की प्रमुखता से भक्ति पर जोर है
- रूद्र संप्रदाय- आचार्य बल्लाभाचार्य, सूरदास आदि और इसमें कृष्णा की उपासना पर जोर था
- सनकादि संप्रदाय - आचार्य निम्बकाचार्य और इसमें राधा की प्रधानता थी

२. सूफी साधक
- भक्ति काल इतना व्यापक और मानवीय था की उसमे हिन्दू के साथ साथ मुस्लमान भी आये.
-  सूफी साधना का प्रवेश भारत में १२वी शती में मोइनुद्दीन चिश्ती के समय से मिलता है
- सूफी साधना के चार संप्रदाय प्रचलित हैं. चिश्ती, सोहरवर्दी, कादरी और नक्शबंदी
- सूफी मुसलमान थे लेकिन उन्होंने हिन्दू घरों में प्रचलित कथा और कहानियों को अपने काव्य का आधार बनाया।
- आचार्य रामचंद शुक्ल जी ने इसीलिए जायसी आदि सूफी कवियों को सूर, कबीर, तुलसी के ही समकक्ष रखा है.

३. अन्य सन्त
आधुनिक हिंदी क्षेत्र से बाहर पड़ने वाले दो संत कवियों - महाराष्ट्र के नामदेव (१३वी शती) और पंजाब के गुरु नानक देव (१५वी शती) ने भी हिंदी में रचना की हैं।  नामदेव पहले सगुणोपासक थे परन्तु अनुमानतः ज्ञानदेव जी के संपर्क में आने पर वे निर्गुणोपासक बन गए थे, इसलिए ही उनकी रचनाएँ सगुणोपासना और निर्गुणोपासना दोनों से सम्बंधित थी. गुरु नानक देव जी का सम्बन्ध की संप्रदाय से नहीं जोड़ा जा सकता है और इसलिए उनकी रचनाएँ कबीर की भांति थी परन्तु उतनी प्रखर नहीं थी.

४. भाषा, काव्यरूप और छंद
देश के मध्य देश की काव्य भाषा हिंदी-ब्रजभाषा का बहुत प्रचार प्रसार हुआ.  नामदेव ने मराठी और गुरु नानक देव ने पंजाबी भाषा के साथ साथ ब्रजभाषा (और खड़ी बोली) का भी प्रयोग किया। इसलिए भक्ति काल की मुख्या भाषा ब्रजभाषा ही रही. दूसरी भाषा भक्तिकाल की अवधी रही परन्तु ब्रजभाषा जैस व्यापक नहीं। अवधि में काव्य रचना प्रधानतः राम परक और अवध क्षेत्र के कवियों द्वारा ही हुई है. हिंदी के सूफी कवि भी मुख्यतः अवध क्षेत्र से ही थे.
                       भक्ति साहित्य अनेक छंदों और विधाओं में लिखा गया, किन्तु गेयपद और दोहा-चौपाई में निबद्ध कड़वक बद्धता उसके प्रधान रचना रूप हैं. नामदेव, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई आदि ने गेयपदों में रचनाएँ की हैं वहीँ

५. निर्गुण काव्य - ज्ञानाश्रयी शाखा
कबीर, रैदास, गुरु नानक, दादू दयाल आदि ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि कहे गए हैं क्योंकि इन संतों ने 'ज्ञान' पर सूफियों की अपेक्षा अधिक बल दिया।

६. निर्गुण काव्य - प्रेमाश्रयी शाखा
मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन आदि प्रेमाश्रयी शाखा की कवि हैं. सूफी काव्य के साथ साथ शुद्ध लौकिक प्रेम आख्यानों की परंपरा भी चलती रही. यह लौकिक प्रेम आख्यानों की परंपरा बहुत प्राचीन है जो ऐतिहासिक या कल्पित व्यक्तिओं के साथ किसी राजकुमारी, श्रेष्ठि पुत्री, गणिका या फिर अप्सरा के प्रेम कथा का वर्णन करती है. कालिदास ने मेघदूत में 'उदयन कथा कोविद' इसका उत्तम उदहारण है. जायसी द्वारा रचित पद्मावत प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है. यह काव्य चित्तोड़ के शासक रतनसेन और सिंघल देश की राजकन्या पद्मिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है.

७. सगुण राम भक्ति शाखा
तुलसीदास और नाभादास इस शाखा के मुख्य कवि हैं.  राम की उपासना निर्गुण और सगुण दोनों भक्त करते रहे हैं. राम नाम की उपासना कबीर और तुलसी दोनों करते हैं. अंतर राम के अर्थ को लेकर है. कबीर के राम दशरथ सुत नहीं है किन्तु तुलसी के राम दसरथ सुत हैं. हिंदी क्षेत्र के राम भक्त कवियों का सम्बन्ध रामानंद से है. रामानंद जी राघवानंद के शिष्य और रामानुजाचार्य की परंपरा के आचार्य थे. सभी वर्णों के लोग उनके शिष्य हो सकते थे. हिंदी के निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार के संत कवियों का सम्बन्ध उनसे जुड़ता है.

८. सगुण कृष्ण भक्ति शाखा
सूरदास, मीराबाई, रसखान, रहीम आदि इस शाखा के कवि हैं. महाप्रभु वल्लाभाचार्य ने कृष्णा भक्ति की दार्शनिक पीठिका तैयार की थी और देशाटन करके इस भक्ति का प्रचार भी किया। श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का चौड़ा रास्ता खुला और वल्लाभाचार्य ने दार्शनिक प्रतिपादन और प्रचार से उस रास्ते को सामान्य जान-सुलभ कराया।


                   इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्ति का शास्त्र यद्यपि दक्षिण में बना किन्तु उसका पूर्ण उत्कर्ष उत्तर में हुआ. भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था. भारत की सभी भाषाओँ और साहित्य पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव है. अतः उसने भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट किया। हिंदी साहित्य में भक्ति काल दीर्घ व्यापी लगभग तीन शताब्दियों तक प्रभावी रहा. शायद ही किसी अन्य भारतीय भाषा में इतनी संख्या में श्रेष्ठ कवी - कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी जैसे हुए हों और साथ ही हिंदी भक्ति साहित्य में मुसलमान कवियों का उत्तम योगदान भी अन्यत्र नहीं मिलता.


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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
http://gadyakosh.org/gk/हिन्दी_साहित्य_का_इतिहास_/_आचार्य_रामचंद्र_शुक्ल

Saturday 17 December 2016

एक सराहनीय प्रयास

भारत में आजकल नोट बंदी चल रही है, ५०० और १००० रुपये के नोट भारतीय केंद्रीय सरकार ने वापस ले लिए हैं. इस समय मैं   स्वयं भी भारत में हूँ और नोट बंदी और बदलवाने के इस राष्ट्रीय पर्व का साक्षी हूँ. मैं भी यदा कदा बैंकों की पंक्तियों में खड़ा होकर आम भारतीय होने पर गर्व महसूस करता हूँ. यहाँ मुझे  अपने अन्य भारतीय भाइयों और बहनों की तरह ही कॅश लेने, नोट बदलवाने और जमा करवाने के लिए पंक्तियों में खड़ा होना पड़ता है. बड़ा ही सुन्दर  नज़ारा है.
वैसे तो  मैं जब भी भारत आता हूँ तो भारत के विकास की अनछुई और बिन कही तमाम बताओं को समझने  का प्रयास करता हूँ. जैसे स्वछ भारत में क्यों लोग, विशेषतः बच्चे, शहर के मुख्य बाजार चौराहों में आज भी मल-मूत्र करते दिखते हैं, सरकार की जन धन योजना होने पर भी मज़दूरों और किसानों की बैंक खतों में कुछ सौ रुपये ही दिखाई देते है. रेलवे के रिजर्वेशन काउंटर में बैठे कर्मचारियों को अपने ही काउंटर (संसद सदस्य, विधायक, विदेशी सैलानी आदि )के बारे मैं ठीक से जानकारी नहीं है.
 हाँ तो बात मैं नोट बंदी की कर रहा था, तो यह एक निश्चित रूप से सराहनीय प्रयास है परन्तु देखना दिलचस्प होगा कि इस तथाकथित लड़ाई में भ्रस्टाचार के शीर्ष पर बैठे हुए भारत के राज नेताओं का क्या होता क्योंकि शायद भारत की वर्तमान स्थिति के लिए राजनैतिक दलो का धन सञ्चालन (डोनेशन्स एंड कलेक्शन्स) ही सबसे पहले शक के दायरे में है. भारतीय जीवन की रोज की  जद्दोजहद में ऐसा लगता है कि हर भ्रष्ट नागरिक राजनीति के इस ब्लैक होल (काली सुरंग) को ही भरने के येन केन प्रकारेण  प्रयास में लगा हुआ है. सरकार के इस नोट बंदी के प्रयास से आपेक्षा रहेगी कि भारत की ईमानदार और कर्त्तव्य परायण जनता को एक बार फिर से भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीतिक जीवन के प्रति विश्वास जागे और उसका जीवन सुचारू रूप से चल सकेगा।
मैं कुछ दिनों में भारत से चला जाऊंगा परतु आशा है सरकार के इस सराहनीय प्रयास का आम आदमी के जीवन में जल्दी से जल्दी असर दिखाई देगा और निकट भविष्य में यह कॅश और भ्रस्टाचार की अर्थव्यवस्था पर अंकुश जरूर लगेगा।
कुछ समय पश्चात........
मेरे भारत से लौटने के बाद समाचार सुनायी देता है कि राजनैतिक दलो को पुराने ५०० और १००० के नोट जमा करने पर कोई पाबन्दी नहीं है तो फि र अब और क्या कहें इसके अलावा .......रामा-ओ-रामा .......   

Saturday 18 June 2016

हिंदी साहित्य का इतिहास - III : भक्तिकाल १४००-१७०० - भाग एक

भाग एक 

भक्ति साहित्य का आधार भक्ति आंदोलन है, इसका अर्थ हुआ की भक्ति  साहित्य की एक वैचारिक भूमि थी. भक्ति आंदोलन की विशेषता यह बताई गयी है की इसमें धर्म साधना का नहीं वरन भावना का विषय बन गया था. महाराष्ट्र के संत नामदेव (जन्म सन् १२५६ ई) की रचनाओं से हिंदी में भक्ति साहित्य की प्रधान प्रवृति बनी रही. इस धार्मिक और साहित्यिक आंदोलन ने हिंदी को कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा जैसे कवि दिए. इनकी कवितायेँ इतनी लोकप्रिय एवं उत्तम हैं की भक्ति कल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है.

पं हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार भक्ति आंदोलन भारतीय चिंता-धारा का स्वाभाविक विकास है.नाथ सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद और जातिगत कठोरता, दक्षिण भारत से आई हुई धारा में घुल मिल गयी, ऐसा प्रतीत होता है. पं रामचन्द्र शुक्ल जी भी इसके ऐतिहासिक आधार पर टिप्पड़ी करते हुए कहते हैं कि दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को उत्तर भारत ने बड़े ही  व्यापक रूप में अपना लिया था. 

शायद इसका कारण दक्षिण भारत की उस समय (१३वी शताब्दी एवं १४ वी शताब्दी ) की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थितियां स्पष्ठ करती हैं जिसने अवर्णों एवंम स्त्रियों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठने के लिए एक नया मार्ग ढूंढने की ओर प्रेरित किया, लेकिन यह काम किसी सुसंगत विचारधारा अथवा दर्शन के बिना नहीं हो सकता था. दर्शन के दो अंग होते हैं - तत्त्व बोध और उसी के अनुकूल उत्पन्न साधना मार्ग जिसे आजकल जीवन दर्शन कहते हैं. 

इस विषय में शंकराचार्य (जन्म सन् ७८८ ई) का अद्वैत और रामानुजाचार्य (जन्म सन् १०१७ ई) का विशिष्टाद्वैत को एक साथ देखना चाहिए। शंकराचार्य जगत को मिथ्या और ब्रह्म को विशेषण रहित। दूसरी ओर रामानुजाचार्य जगत को मिथ्या नहीं वरन वास्तविक मानते थे और ब्रह्म को विशेषणयुक्त। उनके अनुसार इस जगत को वास्तविक मानकर उसे महत्त्व देने में ही भक्ति की लोकोन्मुख्ता एवं करुणा है.  

भक्ति तो पहले भी थी परन्तु वह केवल साधना मात्र थी, आंदोलन नहीं. ऐतिहासिक स्थितियों की अनुकूलता में वह प्रवत्ति व्यापक एवं तीव्र होकर धार्मिक आंदोलन बन गयी. 

शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य के समय की ऐतिहासिक परिस्थियां भी इसी और चिन्हित करती हैं कि अवर्णों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठाने की निसंदेह चेष्ठा की गयी थी.  दक्षिण भारत में पहली शताब्दी के बाद कई शताब्दियों तक राज सत्ता पराक्रमी शासकों के हाथ में रही. संगम काल में चोलवंशी शासक करिकाल ने कावेरी नदी के जल को नियंत्रित करके सिचाई के व्यवस्था की थी और एक प्रसिद्ध बंदरगाह भी बनवाया था. कांचीपुरम पल्लवों की राजधानी थी, ७ वीं शताब्दी के अंतिम और ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पल्लब शासक नर्सिंग वर्मन ने स्थापत्य को अत्याधिक बढ़ावा दिया और उसने कांची का प्रसिद्ध राजसिंघेश्वर मंदिर बनवाया। उसके समय में चित्रकला की भी बहुत उन्नति हुई थी. इस सब से कांची में शिल्पियों को बहुत सम्मान मिला। मद्रास म्यूजियम के उत्तम चोला ताम्रपत्र के अनुसार कांची पुरम के बुनकरों को स्थनीय मंदिर की वित्तीय देखभाल का काम सौंपा गया था. इससे बुनकरों को व्यापारियों-वैश्यों जैसा ही सम्मान मिला। इसके अतिरिक्त आचार्य रामानुज का जन्म कांची पुरम के पास हुआ था, वे अधधयन के लिए बचपन में ही कांचीपुरम आ गए थे. वहां उनकी भेंट कांचीपूर्ण से हुए. कांचीपूर्ण रामानुजाचार्य के शूद्र गुरु थे. यह भी विदित है की प्रसिद्ध वैष्णव अलवार संत-कवि दक्षिण में ही थे, इन्ही में एक महिला 'अंदाल' भी थी और प्रसिद्ध अलवार नाम्म या शठकोप शुद्र थे.  

रामानुजाचार्य की ही परंपरा में रामानन्द (जन्म सन् १३०० ई के आस पास ) हुए जिनके बारे में कहा जाता है की वे भक्ति को दक्षिण से उत्तर में लाये।

जैसी स्थिति उत्तर भारत में १३ वीं  और १४ वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए वह, जैसा ऊपर बताया गया है, दक्षिण में पहली शताब्दी के बाद ही पैदा हो गयी थी. इसी समय दिल्ली सल्तनत (१३ वीं) से मुस्लिम शासकों का शासन भी शुरू हो गया था और 16वीं शताब्दी में तो मुग़ल शासक तमाम खुनी लड़ाईयों के बाद पूर्णतया स्थापित हो गए थे. इसलिए शायद डॉ रामचद्र शुक्ल जी इसे इस्लामी आक्रमण से पराजित हिन्दू जनता की असहाय एवं निराश मनस्थिति से जोड़ा था. वे एक और इससे दक्षिण भारत से आया हुआ मानते थे, दूसरी ओर  यह भी मानते थे की अपने पौरुष से निराश-हताश जाति के लिए भगवान् की सकती और करुणा के ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था. हो सकता है शुक्ल जी इस उदासी और निराशा को भक्ति का कारण  न बता रहे हों वरन वे उत्तर भारत की हिन्दू जनता की उस मानसिकता को बता रहे हों जिसने दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को इतने व्यापक रूप में अपना लिया था. 

हिंदी साहित्य के चारों कालों को देखने से पता चलता है की साहित्य के योगदान में अवर्णों और नारियो की सह स्थिति हैं. हिंदी में अवर्ण साहित्यकार अधिक संख्या में या तो भक्ति काल में हुए या फिर आधुनिक काल में. नारी रचनाकारों की भी कमोवेश यही स्थिति है.  

 अपने अगले भाग में हम भक्ति काल के सम्प्रदायों, कवियों और निर्गुण-सगुण  पर चर्चा करेंगे..... धन्यवाद

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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
http://gadyakosh.org/gk/हिन्दी_साहित्य_का_इतिहास_/_आचार्य_रामचंद्र_शुक्ल


Thursday 12 May 2016

सुनिए प्रधानमत्री जी

आज मैं बात करूँगा उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार की वापसी की. हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड में बर्खास्त की गयी कांग्रेस की सरकार को वापस बहुमत साबित करने का मौका दे कर केंद्रीय सरकार की मंशा पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाया है और राष्ट्रपति शासन को हटा कर निर्वाचित सरकार को फिर से काम करने का मौका दिया. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय सराहनीय है. 

परन्तु क्या हो गया है मोदी सरकार को. मोदी सरकार तो ऐसा लग रहा है जैसे कांग्रेस साफ़ के स्थान पर कांग्रेस की भांति कार्य करने पर उतारू है. यह तो एक किताबी संवैधानिक ज्ञान है की यदि थोड़ा भी प्रांतीय सरकार के बहुमत साबित करने की सम्भावना होती है तो एक जिम्मेदार केंद्रीय सरकार का यह दायित्व है कि वह प्रांतीय सरकार तो बहुमत साबित करने का पूरा अवसर दे मगर मोदी सरकार तो लगता है की राष्ट्रपति शासन लगने की इतनी जल्दी थी की उसने उत्तराखंड सरकार को इसका मौका ही नहीं दिया और आनन फानन में राष्ट्रपति शासंन लगा दिया. अपने इस कृत्य से मोदी सरकार पर तानाशाही होने के आरोपों को बल मिलता है. लोकतंत्र जिम्मेदारी से चलता है न की मन मानी से. देश की कोटि कोटि जनता ने श्री मोदी जी को बहुत आशा और विशवास के साथ २०१४ के लोकसभा चुनाव में बहुमत दिया है इस विश्वास के साथ कि भारत माता  का यह बालक अपने जीवन के अनुभवों से देश के जनता का दुःख दर्द ज्यादा अच्छे तरीके से समझ कर उन्हें दूर करने में कोई कोर कसर नहीं रखेगा। इसलिए हमारे प्रधानमत्री मोदी जी का यह नैतिक दायित्व है कि वे जनता के इस भाव को अच्छे से समझे और उस दिशा में निरंतर कार्य करें अन्यथा ऐसा न हो क़ि जनता की कांग्रेस के विकल्प के तौर पर सरकार चुनने की इच्छा और अपेक्षा दोनों ही समाप्त हो जाये और पुनः कांग्रेस आने वाले कई वर्षों तक फिर सत्ता रूढ़ हो जाये और कांग्रेस मुक्त भारत का सपना सपना ही रह जाये. और यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल में गैर कांग्रेस सरकार का एक प्रयोग पहले ही असफल हो चूका है.  

यदि मोदी सरकार का यह अलोकतांत्रिक मंतव्य किसी  राजनैतिक अथवा अराजनैतिक सलाह का परिणाम है तो यह जिम्मेदारी भी प्रधानमत्री महोदय की है को वे अपने सलाकारों पर नियंत्रण रखें और स्वस्थ लोकतंत्र का पाठ याद दिलाएं कि लोकत्रंत्र में नर ही नारायण होना चाहिए और उसके हेतु ही सारी योजनाएं केंद्रित रहनी चाहिए। 

भारत बहुत बड़ा और विकट भिन्नताओं वाला देश है और इसकी आवश्यकताएँ भी असीमित है. कुछ भारतमाता की संतानें गरीबी के चरम पर जीवन यापन करने को विवश है, कुछ नौजवान बेरोजगारी से ग्रसित हैं, बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उस पर शिक्षा, स्वास्थ, सूखा, बाढ़, आपदा, सामान्य जीवन हेतु अत्यन्त अल्प आवश्यकताओं हेतु भारत माता की संतानें प्रतिदिन संघर्ष करती है. और उसके ऊपर कुछ लोग तो हर पल भारत माता को कलंकित और आहत करने को तत्पर हैं. 

ऐसे में प्रधानमत्री जी यदि इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने पूर्ण सामर्थ्य और क्षमता से कार्य करें तो ही निसंदेह वे भाजपा के "चाल चरित्र और चेहरा" वाले नारे को चरितार्थ कर पाएंगे अन्यथा यह नारा नारा ही रह जायेगा और भारत माता को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगेगी।  

Saturday 22 August 2015

नेट नूट्रलिटी

आज कल नेट नूट्रलिटी अर्थात इंटरनेट निरपेक्षता पर विश्व भर में चर्चा हो रही है तो सोचा की चलिए इस पर भी कुछ विचार रखे जाएँ.

सबसे पहले, क्या है यह इंटरनेट निरपेक्षता, यह एक प्रकार की कंप्यूटर शब्दावली है जिसमे इंटरनेट की सुविधा देने वाली कंपनी या कम्पनिओं से यह अपेक्षा रहती है की वह अपने अपने ग्राहकों को निरपेक्ष सुविधा दें. 
इसका मतलब यह हुआ की उनके रूट (इंटरनेट मार्ग) से जो भी वेब साइट्स उनके ग्राहकों द्वारा देखी जाएँ उनमे किसी तरह का कोई पक्षपात न हो.

यह पक्षपात कई रूप में हो सकता है. जैसे, कुछ इंटरनेट कंपनियां कुछ विशेष प्रकार के उत्पादों को ज्यादा जल्दी अपने ग्राहकों को उपलब्ध करा सकती है जबकि कुछ दूसरे (जो इस इंटरनेट कंपनी को पसंद न हों) उत्पादों को उपलब्ध करने में देरी कर सकती हैं. दूसरा उदाहरण यह हो सकता है की आप कोई संगीत सुनना चाहते हैं परन्तु आपका इंटरनेट उपलध कराने वाली कंपनी (इंटरनेट प्रोवाइडर) उस संगीत को आपके उपकरण में धीरे धीरे उपलब्ध  कराये और जिसका परिणाम यह हो कि ज्यादा समय लेने के कारण या तो आप उस संगीत को अपने उपकरण में ले ही ना और या फिर आपको ज्यादा मूल्य देना पड़े अपने उपकरण में वह संगीत लेने के लिए.   


अब यह समस्या क्यों हुई इसका शायद उत्तर है इंटरनेट कि निरत बदलती तकनीक और इंटरनेट उपलब्ध करने वाली कम्पनिओं का लालच . ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इंटरनेट कि बढ़ती हुई तकनीक ने इंटरनेट को अब और अधिक तेज़ और उपभोक्ता कि प्राथमिकताथमिकता अनूरूप मॉडल बना दिया है. इसका अर्थ यह हुआ कि अब इंटरनेट मोबाइल कम्पनिओं द्वारा भी उपलब्ध कार्य जा रहा है. इन मोबाइल फ़ोन कम्पनिओं ने अपनी त्वरित मेसेजिंग सिस्टम से काफी पैसा बनाया है. परन्तु आप ऐसे कंप्यूटर सॉफ्टवेयर आ गए हैं कि त्वरित मेसेजिंग सिस्टम कि उपयोगिता लगभग ख़त्म सी हो गयी है. ऐसे कंप्यूटर सोफ्ट्वरों में स्काइप और व्हाट्सप्प जैसे सॉफ्टवेयर भी हैं जो यदि आपके पास इंटरनेट कि सुविधा हो तो यह सॉफ्टवेयर आपको आसानी से मुफ्त फ़ोन पर बात करने कि सुविधा देते हैं. इससे टेक्नोलॉजी कि दुनिया में.वौइस् ओवर आईपी कहा जाता है. अब समस्या यह होगई मुख्यतौर पर मोबाइल फ़ोन कम्पनिओं के लिए कि उनकी त्वरित मेसेजिंग सिस्टम की उपयोगिता खत्म हो गयी और लोग उनके द्वारा दी गयी इंटरनेट की सुविधा से मुफ्त में फ़ोन पर बात कर लेते हैं. और यहीं से शुरू होता है लालच और हाई टेक्नोलॉजी का मत विभाजन और कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट.

इन कंपनियों ने अब अपने ग्राहकों द्वारा दूसरी उपयोगी सुविधाओं के लिए इंटरनेट को धीमा करना शुरू कर दिया और ऐसे हर इंटरनेट मार्ग को निम्न प्राथमिकता में रखना शुरू कर दिया जिससे उनको आय नहीं होती है, इंटरनेट सुविधा देने की आय के ऊपर. इंटरनेट सुविधा देने की आय तो वे पहले ही या तो मासिक अनुबंध द्वारा अथवा एक मुश्त फ़ोन के मूल्य से निकाल लेते हैं. अपने इसी लालच के कारण वे अब अपनी प्रतियोगी कम्पनिओं के इंटरनेट मार्ग को व्यस्त रखते हैं और आपको इंटरनेट की धीमे गति मिलती है.     

स्वस्थ व्यवसाइक वातावरण तो यह होता है कि सभी कम्पनिओं को अपने अपने उत्पाद दिखाने के लिए बराबर समय   मिलना चाहिए और वह भी सामान गति से जिससे ग्राहक स्वयं यह निर्णय कर सके की उससे किस उत्पाद में ज्यादा रूचि है ना कि ग्राहकों पर परोक्ष रूप से वह ही परसा जाये जो व्यवसाइक दृस्टि से ही अधिक आय अर्जित कर सके.