Saturday 18 June 2016

हिंदी साहित्य का इतिहास - III : भक्तिकाल १४००-१७०० - भाग एक

भाग एक 

भक्ति साहित्य का आधार भक्ति आंदोलन है, इसका अर्थ हुआ की भक्ति  साहित्य की एक वैचारिक भूमि थी. भक्ति आंदोलन की विशेषता यह बताई गयी है की इसमें धर्म साधना का नहीं वरन भावना का विषय बन गया था. महाराष्ट्र के संत नामदेव (जन्म सन् १२५६ ई) की रचनाओं से हिंदी में भक्ति साहित्य की प्रधान प्रवृति बनी रही. इस धार्मिक और साहित्यिक आंदोलन ने हिंदी को कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा जैसे कवि दिए. इनकी कवितायेँ इतनी लोकप्रिय एवं उत्तम हैं की भक्ति कल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है.

पं हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार भक्ति आंदोलन भारतीय चिंता-धारा का स्वाभाविक विकास है.नाथ सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद और जातिगत कठोरता, दक्षिण भारत से आई हुई धारा में घुल मिल गयी, ऐसा प्रतीत होता है. पं रामचन्द्र शुक्ल जी भी इसके ऐतिहासिक आधार पर टिप्पड़ी करते हुए कहते हैं कि दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को उत्तर भारत ने बड़े ही  व्यापक रूप में अपना लिया था. 

शायद इसका कारण दक्षिण भारत की उस समय (१३वी शताब्दी एवं १४ वी शताब्दी ) की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थितियां स्पष्ठ करती हैं जिसने अवर्णों एवंम स्त्रियों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठने के लिए एक नया मार्ग ढूंढने की ओर प्रेरित किया, लेकिन यह काम किसी सुसंगत विचारधारा अथवा दर्शन के बिना नहीं हो सकता था. दर्शन के दो अंग होते हैं - तत्त्व बोध और उसी के अनुकूल उत्पन्न साधना मार्ग जिसे आजकल जीवन दर्शन कहते हैं. 

इस विषय में शंकराचार्य (जन्म सन् ७८८ ई) का अद्वैत और रामानुजाचार्य (जन्म सन् १०१७ ई) का विशिष्टाद्वैत को एक साथ देखना चाहिए। शंकराचार्य जगत को मिथ्या और ब्रह्म को विशेषण रहित। दूसरी ओर रामानुजाचार्य जगत को मिथ्या नहीं वरन वास्तविक मानते थे और ब्रह्म को विशेषणयुक्त। उनके अनुसार इस जगत को वास्तविक मानकर उसे महत्त्व देने में ही भक्ति की लोकोन्मुख्ता एवं करुणा है.  

भक्ति तो पहले भी थी परन्तु वह केवल साधना मात्र थी, आंदोलन नहीं. ऐतिहासिक स्थितियों की अनुकूलता में वह प्रवत्ति व्यापक एवं तीव्र होकर धार्मिक आंदोलन बन गयी. 

शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य के समय की ऐतिहासिक परिस्थियां भी इसी और चिन्हित करती हैं कि अवर्णों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठाने की निसंदेह चेष्ठा की गयी थी.  दक्षिण भारत में पहली शताब्दी के बाद कई शताब्दियों तक राज सत्ता पराक्रमी शासकों के हाथ में रही. संगम काल में चोलवंशी शासक करिकाल ने कावेरी नदी के जल को नियंत्रित करके सिचाई के व्यवस्था की थी और एक प्रसिद्ध बंदरगाह भी बनवाया था. कांचीपुरम पल्लवों की राजधानी थी, ७ वीं शताब्दी के अंतिम और ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पल्लब शासक नर्सिंग वर्मन ने स्थापत्य को अत्याधिक बढ़ावा दिया और उसने कांची का प्रसिद्ध राजसिंघेश्वर मंदिर बनवाया। उसके समय में चित्रकला की भी बहुत उन्नति हुई थी. इस सब से कांची में शिल्पियों को बहुत सम्मान मिला। मद्रास म्यूजियम के उत्तम चोला ताम्रपत्र के अनुसार कांची पुरम के बुनकरों को स्थनीय मंदिर की वित्तीय देखभाल का काम सौंपा गया था. इससे बुनकरों को व्यापारियों-वैश्यों जैसा ही सम्मान मिला। इसके अतिरिक्त आचार्य रामानुज का जन्म कांची पुरम के पास हुआ था, वे अधधयन के लिए बचपन में ही कांचीपुरम आ गए थे. वहां उनकी भेंट कांचीपूर्ण से हुए. कांचीपूर्ण रामानुजाचार्य के शूद्र गुरु थे. यह भी विदित है की प्रसिद्ध वैष्णव अलवार संत-कवि दक्षिण में ही थे, इन्ही में एक महिला 'अंदाल' भी थी और प्रसिद्ध अलवार नाम्म या शठकोप शुद्र थे.  

रामानुजाचार्य की ही परंपरा में रामानन्द (जन्म सन् १३०० ई के आस पास ) हुए जिनके बारे में कहा जाता है की वे भक्ति को दक्षिण से उत्तर में लाये।

जैसी स्थिति उत्तर भारत में १३ वीं  और १४ वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए वह, जैसा ऊपर बताया गया है, दक्षिण में पहली शताब्दी के बाद ही पैदा हो गयी थी. इसी समय दिल्ली सल्तनत (१३ वीं) से मुस्लिम शासकों का शासन भी शुरू हो गया था और 16वीं शताब्दी में तो मुग़ल शासक तमाम खुनी लड़ाईयों के बाद पूर्णतया स्थापित हो गए थे. इसलिए शायद डॉ रामचद्र शुक्ल जी इसे इस्लामी आक्रमण से पराजित हिन्दू जनता की असहाय एवं निराश मनस्थिति से जोड़ा था. वे एक और इससे दक्षिण भारत से आया हुआ मानते थे, दूसरी ओर  यह भी मानते थे की अपने पौरुष से निराश-हताश जाति के लिए भगवान् की सकती और करुणा के ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था. हो सकता है शुक्ल जी इस उदासी और निराशा को भक्ति का कारण  न बता रहे हों वरन वे उत्तर भारत की हिन्दू जनता की उस मानसिकता को बता रहे हों जिसने दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को इतने व्यापक रूप में अपना लिया था. 

हिंदी साहित्य के चारों कालों को देखने से पता चलता है की साहित्य के योगदान में अवर्णों और नारियो की सह स्थिति हैं. हिंदी में अवर्ण साहित्यकार अधिक संख्या में या तो भक्ति काल में हुए या फिर आधुनिक काल में. नारी रचनाकारों की भी कमोवेश यही स्थिति है.  

 अपने अगले भाग में हम भक्ति काल के सम्प्रदायों, कवियों और निर्गुण-सगुण  पर चर्चा करेंगे..... धन्यवाद

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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
http://gadyakosh.org/gk/हिन्दी_साहित्य_का_इतिहास_/_आचार्य_रामचंद्र_शुक्ल


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