Thursday 23 June 2011

हिंदी भाषा का इतिहास - VIII : राजभाषा हिंदी का संघर्ष

भारत के संविधान में राजभाषा के रूप में स्वीकृत हो जाने पर भी व्यवहारिक रूप में हिंदी के विकास में बाधाएं आती ही रहीं. हिंदी के प्रश्न को लेकर कुछ राजनैतिक नेता अपने स्वार्थ की पूर्ती के लिए जनमानस में ग़लतफ़हमी पैदा करने में ही अपनी भलाई समझने लगे. इस प्रकार से हिंदी की स्थिती को कमजोर करने में बहुत कुछ इन राजनैतिक शक्तियां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से जिम्मेदार जरूर हैं. और हम आज भी देख सकते हैं की भारत की एकता की दुहाई देकर आज भी हिंदी आन्दोलनों का दमन ही किया जा रहा है और सरकारी-गैर सरकारी कार्यो में अंग्रेजी को ही प्राथमिकता मिल रही है. सबसे दुर्भाग्य की बात तो यह है की आज के भारतीय सरकारी तंत्र के कुछ केंद्र बिंदु तो स्वयं ही हिंदी बोल पाने में पूरी तरह से असमर्थ हैं.भारत की यह स्थिती निश्चित रूप से अंतररास्ट्रीय मंच पर तो जरूर भाषा की भ्रामक स्थिती बनाये हुए है.
१९५६ में प्रदेशों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर करना शायद गलत ही था क्योंकि उसने राजभाषा और क्षेत्रीय भाषाओँ को प्रतिद्वंदियों जैसा बना दिया और दोनों में सहयोग के स्थान पर टकराव की सी स्थिती बन गयी जो आज भी आसानी से देखी जा सकती है. इससे व्यापक राष्ट्रीय भावना के बदले क्षेत्रीय भाषायों को ज्यादा बढ़ावा मिला और इससे स्वार्थी तत्वों ने इसे और भी मुखरित किया. जब १९६७ में हिंदी राजभाषा विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था तो अहिन्दी भाषी राज्यों में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. सबसे पुरजोर विरोध के स्वर तो तमिलनाडु प्रदेश से आये. उस समय तमिल भाषा को दोयम दर्जे की भाषा बन जाने के खतरों का प्रचार करने वालों की केवल यह एक राजनेतिक साजिश ही थी. परिणाम स्वरुप न तो इस आन्दोलन से हिंदी भाषा और न ही तमिल भाषा का ही कुछ भला हुआ वरन हमारी इन दोनों भाषाओँ के टकराव की स्थिती में एक विदेशी भाषा को हम पर थोप दिया गया जिसने आज तक हमारी राज भाषा के साथ-साथ सभी क्षेत्रीय भाषाओँ को दोयम दर्जे का बना रखा है.
सामान्य रूप से हिंदी का विरोध करने वाले अधिकांशत: और अंग्रेजी का समर्थन करने वाले लोगों का तर्क है की हिंदी अभी निर्माणावस्था में है और इसमें वैज्ञानिक साहित्य नाम मात्र को है. परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि हिंदी में पारिभाषिक और वैज्ञानिक शब्दों के अभाव की पूर्ती हो रही है. यह अभाव हिंदी या भारत की किसी अन्य भाषाओँ की अन्तर्निहित स्वाभाविक निर्बलता के कारण नहीं अपितु अंग्रेजी के अनुचित तनाव से उत्पन्न हुआ है. चूंकि हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य की मांग नहीं हुई, इसलिए वैज्ञानिक साहित्य का निर्माण नहीं हुआ. अब यह मांग होने लगी है और हिंदी में वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और बोध्धिक साहित्य का बड़ी प्रबलता से निर्माण हो रहा है. हिंदी का किसी भी युग का साहित्य किसी दूसरी भाषा के किसी भी युग के साहित्य से किसी भी अंश में हीन नहीं है. इसका प्रमाण एक हज़ार वर्षों का हिंदी साहित्य है. 
मैं ऐसा समझाता हूँ हमारा प्रयास यह होना चाहिए की हमारी राजभाषा और क्षेत्रीय भाषाएँ सहचरी बन कर रहें न की प्रतिद्वंदी और राज भाषा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उचित स्थान दिलाकर भारत के प्रति राष्ट्रीय भावना का संचार करें. साथ में विदेशी भाषा का तो निसंदेह केवल न्यूनतम अंतरराष्ट्रीय उपयोग करना होगा 

----------------------------------------------------------------
सहायक ग्रन्थ सूची :

हिंदी का राजभाषा के रूप में विकास - डॉक्टर शिवराज शर्मा
राज भाषा हिंदी - डॉ मालिक मोहम्मद