Saturday 22 August 2015

नेट नूट्रलिटी

आज कल नेट नूट्रलिटी अर्थात इंटरनेट निरपेक्षता पर विश्व भर में चर्चा हो रही है तो सोचा की चलिए इस पर भी कुछ विचार रखे जाएँ.

सबसे पहले, क्या है यह इंटरनेट निरपेक्षता, यह एक प्रकार की कंप्यूटर शब्दावली है जिसमे इंटरनेट की सुविधा देने वाली कंपनी या कम्पनिओं से यह अपेक्षा रहती है की वह अपने अपने ग्राहकों को निरपेक्ष सुविधा दें. 
इसका मतलब यह हुआ की उनके रूट (इंटरनेट मार्ग) से जो भी वेब साइट्स उनके ग्राहकों द्वारा देखी जाएँ उनमे किसी तरह का कोई पक्षपात न हो.

यह पक्षपात कई रूप में हो सकता है. जैसे, कुछ इंटरनेट कंपनियां कुछ विशेष प्रकार के उत्पादों को ज्यादा जल्दी अपने ग्राहकों को उपलब्ध करा सकती है जबकि कुछ दूसरे (जो इस इंटरनेट कंपनी को पसंद न हों) उत्पादों को उपलब्ध करने में देरी कर सकती हैं. दूसरा उदाहरण यह हो सकता है की आप कोई संगीत सुनना चाहते हैं परन्तु आपका इंटरनेट उपलध कराने वाली कंपनी (इंटरनेट प्रोवाइडर) उस संगीत को आपके उपकरण में धीरे धीरे उपलब्ध  कराये और जिसका परिणाम यह हो कि ज्यादा समय लेने के कारण या तो आप उस संगीत को अपने उपकरण में ले ही ना और या फिर आपको ज्यादा मूल्य देना पड़े अपने उपकरण में वह संगीत लेने के लिए.   


अब यह समस्या क्यों हुई इसका शायद उत्तर है इंटरनेट कि निरत बदलती तकनीक और इंटरनेट उपलब्ध करने वाली कम्पनिओं का लालच . ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इंटरनेट कि बढ़ती हुई तकनीक ने इंटरनेट को अब और अधिक तेज़ और उपभोक्ता कि प्राथमिकताथमिकता अनूरूप मॉडल बना दिया है. इसका अर्थ यह हुआ कि अब इंटरनेट मोबाइल कम्पनिओं द्वारा भी उपलब्ध कार्य जा रहा है. इन मोबाइल फ़ोन कम्पनिओं ने अपनी त्वरित मेसेजिंग सिस्टम से काफी पैसा बनाया है. परन्तु आप ऐसे कंप्यूटर सॉफ्टवेयर आ गए हैं कि त्वरित मेसेजिंग सिस्टम कि उपयोगिता लगभग ख़त्म सी हो गयी है. ऐसे कंप्यूटर सोफ्ट्वरों में स्काइप और व्हाट्सप्प जैसे सॉफ्टवेयर भी हैं जो यदि आपके पास इंटरनेट कि सुविधा हो तो यह सॉफ्टवेयर आपको आसानी से मुफ्त फ़ोन पर बात करने कि सुविधा देते हैं. इससे टेक्नोलॉजी कि दुनिया में.वौइस् ओवर आईपी कहा जाता है. अब समस्या यह होगई मुख्यतौर पर मोबाइल फ़ोन कम्पनिओं के लिए कि उनकी त्वरित मेसेजिंग सिस्टम की उपयोगिता खत्म हो गयी और लोग उनके द्वारा दी गयी इंटरनेट की सुविधा से मुफ्त में फ़ोन पर बात कर लेते हैं. और यहीं से शुरू होता है लालच और हाई टेक्नोलॉजी का मत विभाजन और कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट.

इन कंपनियों ने अब अपने ग्राहकों द्वारा दूसरी उपयोगी सुविधाओं के लिए इंटरनेट को धीमा करना शुरू कर दिया और ऐसे हर इंटरनेट मार्ग को निम्न प्राथमिकता में रखना शुरू कर दिया जिससे उनको आय नहीं होती है, इंटरनेट सुविधा देने की आय के ऊपर. इंटरनेट सुविधा देने की आय तो वे पहले ही या तो मासिक अनुबंध द्वारा अथवा एक मुश्त फ़ोन के मूल्य से निकाल लेते हैं. अपने इसी लालच के कारण वे अब अपनी प्रतियोगी कम्पनिओं के इंटरनेट मार्ग को व्यस्त रखते हैं और आपको इंटरनेट की धीमे गति मिलती है.     

स्वस्थ व्यवसाइक वातावरण तो यह होता है कि सभी कम्पनिओं को अपने अपने उत्पाद दिखाने के लिए बराबर समय   मिलना चाहिए और वह भी सामान गति से जिससे ग्राहक स्वयं यह निर्णय कर सके की उससे किस उत्पाद में ज्यादा रूचि है ना कि ग्राहकों पर परोक्ष रूप से वह ही परसा जाये जो व्यवसाइक दृस्टि से ही अधिक आय अर्जित कर सके. 

Saturday 4 April 2015

हिंदी साहित्य का इतिहास - II : आदिकाल १०००-१४००

आज हिंदी साहित्य के लेख को आगे बढ़ाते हैं. आज हम अपने पूर्व के लेखानुसार हिंदी साहित्य के विभिन्न कालों का विश्लेषण करेंगे. आज का लेख आदि काल को समर्पित है. 

आदिकाल १०००-१४०० 
यह विविध और परस्पर विरोधी प्रवर्तियों का काल है. राजनैतिक दृष्टि से उत्तरी भारत छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था. हर्षवर्धन (लगभग ६०६-६४७) के बाद किसी ने केंद्रीय सत्ता स्थापित नहीं की. आवागमन के साधनों के अविकसित होने के कारण विभिन्न स्थानों पर रची गयी कृतियों में भाषागत विभिन्नताओं और क्षेत्रीयता का रंग अधिक है. इसलिए आदिकाल का साहित्य अनेक बोलियों का साहित्य प्रतीत होता है. धार्मिक दृष्टि से इस काल में अनेक ज्ञात और अज्ञात साधनाएं प्रचलित थीं. सिद्ध, जैन, नाथ, आदि मतों का इस काल में व्यापक प्रचार था. सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की कालांतर की तंत्र मंत्र की साधना, अर्थात वज्रयान, से था. इन्होने सहज जीवन पर बल दिया और वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीव्र प्रहार किया है. सिद्धों का स्थान मध्य देश का पूर्वी भाग है. नाथों नें भी 'जोई जोई पिण्डे सोई ब्रह्मांडा' अर्थात जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड मैं है, कह कर ब्रह्मचर्य, वाक् संयम, शारीरिक- मानसिक सुचिता, मद्य-मांस के त्याग पर जोर दिया है.  नाथों का स्थान मध्य प्रदेश  का पश्चिमोत्तर भाग बताया जाता है.  जैन मतावलम्बी रचनाएँ दो प्रकार की हैं, पहली, नाथ-सिद्धों के तरह उपदेश, नीति और सदाचार पर बल है और दूसरी, पौराणिक, जैन साधकों की प्रेरक जीवन कथाएं और लोक प्रचलित कथाओं को आधार बना कर जैन मत का प्रचार किया गया लगता है.  जैन मत के प्रभाव में अधिकांश काव्य गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में रचा गया है. 
इसके अतिरिक्त, पंडित रामचंद शुक्ल जी ने आदिकाल के तीसरे चरण को वीरगाथा काल  भी कहा है जिसमे श्रृंगार परक लौकिक काव्यों के साथ साथ कवि अपने आश्रय दाताओं और उनके पूर्वजों के पराक्रम , रूप और दान इत्यादि की प्रशंसा करते थे. इस काल में भूमि और नारी का हरण राजाओं पैर लिखे गए काव्य का सामान्य विषय है.पृथ्वी राज रासो, प्रसिद्ध चन्दरवरदायी की रचना, इस काल का एक महत्वपूर्ण काव्य है. भाषा की दृष्टि से यह अपभ्रंश और हिंदी का संधिकाल रहा है. आदिकाल का साहित्य शुद्ध अपभ्रंश अथवा शुद्ध हिंदी का न होकर अपभ्रंश-हिंदी का साहित्य है. साथ ही इस्लाम का भी प्रवेश हो चुका था और इसका भी प्रभाव आदिकाल के अंतिम चरण के प्रसिद्ध कवि अमीरखुसरो में दिखाई देता है. आदिकाल समाप्त होते होते दिल्ली के सिंहासन पर अलाउद्दीन ख़िलजी (लगभग १२९६-१३१६) जैसा शासक दिखाई देता है जो मध्य देश ही नहीं लगभग समूचे देश में अपना शासन स्थापित करता है. 

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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२

Wednesday 4 February 2015

दिल्ली दरबार

आज फिर कुछ लिखने का मन कर रहा तो आज कल दिल्ली, भारत में चल रहे चुनावी दंगल की बात हो जाये. एक तरफ जहाँ भारत के प्रधान मंत्री की साख दाँव पर है तो दूसरी तरफ भारत की राजनीती में एक उभरते हुए व्यक्तित्व की विश्वसनीयता का प्रश्न है

दोनों तरफ ही राष्ट्रवाद और राजनैतिक सुधारवाद का बोलबाला है और दोनों ही पक्ष अपने अपने नेता के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध और विश्वस्त नज़रें आ रहे हैं.

परन्तु ऐसा लगता है की कुछ तो बात है जो प्रधान मंत्री जी की पार्टी को असमंजस मैं डाले हुए है. ऐसा में इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक प्रधान मत्री जी दिल्ली नगर में करीब ३ रैलियां सम्भोधित कर चुके हैं जो उनके कद के नेता के लिए बहुत ज्यादा है. याद कीजिये २०१४ के आम चुनाव की, प्रधान मत्री जी की एक चुनावी सभा उस पूरी डिस्ट्रिक्ट और कभी कभी पूरे राज्य विशेष के लिए पर्याप्त होती थी तो यहां क्या बात है की प्रधान मंत्री जी अभी कुछ और दिल्ली में आम सभाओं को संम्बोधित करने का मन बना रहे हैं. और इसके ऊपर, यदि खबरों की सुने, तो भाजपा ने अपने करीब १५० क्षेत्रीय और राष्ट्रीय नेताओं की फ़ौज लगा दी है चुनाव प्रचार में. उसके भी ऊपर भाजपा नें अपने कैडर के नेताओं पर विशवास न करके एक बाहरी उम्मीदवार श्रीमती किरण बेदी को मुख्य मंत्री के रूप में मैदान में लाना पड़ा.

यह सब कुछ करने के बाद भी भाजपा के शीर्ष नेता अपनी जीत तो सुनिश्चित बताने में हिचक ही रहें हैं.

दूसरी तरफ भी देश भक्ति और भ्रस्टाचार जैस ज्वलंत मुद्दों पर राजनीती का खाता खोलने वालों का आत्मा विशवास भी डोला हुआ दिख रहा है. बार बार ४९ दिनों में सरकार गिरा देने का प्रश्चाताप जनता के बीच में अपनी खोई हुई विश्वसनीयता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास ही लगता है. और उसके ऊपर से निरंतर साथ छोड़ते हुए पुराने साथी भी उनकी पार्टी के लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं. और आप पार्टी के नेता के अतिरिक्त कोई भी प्रभावशाली व्यक्तित्व का अभाव भी उनकी प्रशाशनिक क्षमताओं पर भी प्रश्नचिन्ह ही लगाता है.

काँग्रेस का तो सूपड़ा ही जैसे साफ़ दिखाई देता है. प्रभावशाली नेतृत्व क्षमताओं के रहते हुए भी उनकी विश्वनीयता आम जनता में गंभीरता रूप से सशंकित ही है और लगता है जैसे २०१४ के आम चुनाओ की ही भांति कांग्रेस पार्टी को मायूस ही होना पड़ेगा और ऐसा हाल फिलहाल में कराये गए सर्वेक्षणों से भी लगता है. परन्तु शायद अपनी इस स्थिति के लिए स्वयं काँग्रेस खुद ही जिम्मेदार है.

इसप्रकार से सभी पार्टियां कुछ भी अपने बारे में निश्चितता से नहीं कह सकती है कि चुनाओ के परिणाम उनके पक्ष में आएंगे या नहीं. परन्तु याद कीजिये ऐसा अभी कुछ महीन पहले ही हुए आम चुनाव में नहीं था और भाजपा मदमस्त हाथी की भांति विजय विजय का राग आलाप रही थी और जनता नें उसे सत्ता में आने का मौका भी दे दिया । और उसके साथ २-३ विधान सभा चुनाव में भी विजय दिलवाई।

ऐसा दिल्ली के चुनाओ मैं नहीं कहा जा सकता क्योंकि यही तो शायद लोकशाही की सुंदरता है की कुछ भी अनुमान लगा लीजिये परन्तु परिणाम जनता अपने विवेक से उचित समय पर उचित ही लेती रही है, वह चाहे इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी को उखाड़ फेकना हो या फिर मंडल कमंडल की चौकड़ी की सत्ता में पुनः वापसी ना करने देना हो.

अब प्रश्न यह उठता है की फिर किसको सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए, वैसे तो सबसे बड़ी दावेदारी, मेरी समझ में, आप पार्टी को है और इसका कारण भी है. कारण यह है कि भाजपा को काफी राज्यों में सरकार चलाने का अवसर मिल चुका है और उनके पास भाजपा शाशित राज्यों में जन कल्याण के कार्यक्रम चला सकते हैं और देश भक्ति और सुशासन का प्रमाण देने का अवसर है . दूसरी तरफ आप पार्टी को अभी तक पूरा अजमाना बाकी है, वे या तो ४९ दिनों मैं सरकार की जिम्मेदारिओं से भाग गए या फिर आम चुनाओ में पर्याप्त संख्या न प्राप्त कर सके.

और एक स्वस्थ लोक तांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है और भाजपा इस भूमिका को वर्तमान परिस्थिओं में सबसे अछे तरीके से निभा सकती है क्योकि उसकी. केंद्र में सरकार है और राज्य सरकार के गलतियों को जनता के सामने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ला सकती है.

अब रही बात कांग्रेस की तो अभी उसे थोड़ा सत्ता से बाहर रह कर आंदोलन का अभ्यास करना चाहिए और विधान सभी के अंदर और बाहर एक सकारात्मकता के साथ काम करते हुए सरकार और विपक्ष की विफलताओं को जनता के बीच में लाना चाहिए जिससे दिल्ली को भाजपा और आप दोनों के ही विकल्प के रूप में एक तीसरी राजनैतिक शक्ति मिल सके.