Saturday 4 April 2015

हिंदी साहित्य का इतिहास - II : आदिकाल १०००-१४००

आज हिंदी साहित्य के लेख को आगे बढ़ाते हैं. आज हम अपने पूर्व के लेखानुसार हिंदी साहित्य के विभिन्न कालों का विश्लेषण करेंगे. आज का लेख आदि काल को समर्पित है. 

आदिकाल १०००-१४०० 
यह विविध और परस्पर विरोधी प्रवर्तियों का काल है. राजनैतिक दृष्टि से उत्तरी भारत छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था. हर्षवर्धन (लगभग ६०६-६४७) के बाद किसी ने केंद्रीय सत्ता स्थापित नहीं की. आवागमन के साधनों के अविकसित होने के कारण विभिन्न स्थानों पर रची गयी कृतियों में भाषागत विभिन्नताओं और क्षेत्रीयता का रंग अधिक है. इसलिए आदिकाल का साहित्य अनेक बोलियों का साहित्य प्रतीत होता है. धार्मिक दृष्टि से इस काल में अनेक ज्ञात और अज्ञात साधनाएं प्रचलित थीं. सिद्ध, जैन, नाथ, आदि मतों का इस काल में व्यापक प्रचार था. सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की कालांतर की तंत्र मंत्र की साधना, अर्थात वज्रयान, से था. इन्होने सहज जीवन पर बल दिया और वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीव्र प्रहार किया है. सिद्धों का स्थान मध्य देश का पूर्वी भाग है. नाथों नें भी 'जोई जोई पिण्डे सोई ब्रह्मांडा' अर्थात जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड मैं है, कह कर ब्रह्मचर्य, वाक् संयम, शारीरिक- मानसिक सुचिता, मद्य-मांस के त्याग पर जोर दिया है.  नाथों का स्थान मध्य प्रदेश  का पश्चिमोत्तर भाग बताया जाता है.  जैन मतावलम्बी रचनाएँ दो प्रकार की हैं, पहली, नाथ-सिद्धों के तरह उपदेश, नीति और सदाचार पर बल है और दूसरी, पौराणिक, जैन साधकों की प्रेरक जीवन कथाएं और लोक प्रचलित कथाओं को आधार बना कर जैन मत का प्रचार किया गया लगता है.  जैन मत के प्रभाव में अधिकांश काव्य गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में रचा गया है. 
इसके अतिरिक्त, पंडित रामचंद शुक्ल जी ने आदिकाल के तीसरे चरण को वीरगाथा काल  भी कहा है जिसमे श्रृंगार परक लौकिक काव्यों के साथ साथ कवि अपने आश्रय दाताओं और उनके पूर्वजों के पराक्रम , रूप और दान इत्यादि की प्रशंसा करते थे. इस काल में भूमि और नारी का हरण राजाओं पैर लिखे गए काव्य का सामान्य विषय है.पृथ्वी राज रासो, प्रसिद्ध चन्दरवरदायी की रचना, इस काल का एक महत्वपूर्ण काव्य है. भाषा की दृष्टि से यह अपभ्रंश और हिंदी का संधिकाल रहा है. आदिकाल का साहित्य शुद्ध अपभ्रंश अथवा शुद्ध हिंदी का न होकर अपभ्रंश-हिंदी का साहित्य है. साथ ही इस्लाम का भी प्रवेश हो चुका था और इसका भी प्रभाव आदिकाल के अंतिम चरण के प्रसिद्ध कवि अमीरखुसरो में दिखाई देता है. आदिकाल समाप्त होते होते दिल्ली के सिंहासन पर अलाउद्दीन ख़िलजी (लगभग १२९६-१३१६) जैसा शासक दिखाई देता है जो मध्य देश ही नहीं लगभग समूचे देश में अपना शासन स्थापित करता है. 

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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२