Friday 21 April 2017

हिंदी साहित्य का इतिहास - IV : भक्तिकाल १४००-१७०० - भाग दो

भाग दो 

आज का लेख भी भक्तिकाल को ही समर्पित है

जैसा मैंने भक्ति काल के भाग-एक में लिखा है कि अपने इस भाग में हम भक्ति काल के सम्प्रदायों, कवियों और निर्गुण-सगुण  पर चर्चा करेंगे.....

जैसा मैंने  पूर्व में लिखा है कि भक्तिकाल भक्ति की वैचारिक भूमि पर स्थित है. यह भक्ति दो धाराओं में प्रवाहित हुई है - निर्गुण और सगुण। इन दोनों में अंतर केवल इतना है की निर्गुण मत के इष्ट न तो अवतार लेते हैं और ना ही लीला ही करते हैं, अर्थात वे निराकार हैं. वहीँ दूसरी और सगुण मत के इष्ट अवतार लेते  हैं और लीलाएं भी करते हैं. अतः सगुण मतवाद में विष्णु के २४ अवतारों में से अनेक की उपासना होती थी, यद्यपि सर्वाधिक लोकप्रिय और लोक पूजित अवतार राम और कृष्ण ही हैं.

१. भक्ति के सम्प्रदाय
मुख्यत: चार संप्रदाय प्रचलित थे और वह हैं
- श्रीसम्प्रदाय - आचार्य रामानुजाचार्य, रामानंद आदि और इसमें राम की भक्ति और उपासना की प्रमुखता है
- ब्रहम्म संप्रदाय - आचार्य मध्वाचार्य और चैतन्य महाप्रभु और इसमें कृष्ण की प्रमुखता से भक्ति पर जोर है
- रूद्र संप्रदाय- आचार्य बल्लाभाचार्य, सूरदास आदि और इसमें कृष्णा की उपासना पर जोर था
- सनकादि संप्रदाय - आचार्य निम्बकाचार्य और इसमें राधा की प्रधानता थी

२. सूफी साधक
- भक्ति काल इतना व्यापक और मानवीय था की उसमे हिन्दू के साथ साथ मुस्लमान भी आये.
-  सूफी साधना का प्रवेश भारत में १२वी शती में मोइनुद्दीन चिश्ती के समय से मिलता है
- सूफी साधना के चार संप्रदाय प्रचलित हैं. चिश्ती, सोहरवर्दी, कादरी और नक्शबंदी
- सूफी मुसलमान थे लेकिन उन्होंने हिन्दू घरों में प्रचलित कथा और कहानियों को अपने काव्य का आधार बनाया।
- आचार्य रामचंद शुक्ल जी ने इसीलिए जायसी आदि सूफी कवियों को सूर, कबीर, तुलसी के ही समकक्ष रखा है.

३. अन्य सन्त
आधुनिक हिंदी क्षेत्र से बाहर पड़ने वाले दो संत कवियों - महाराष्ट्र के नामदेव (१३वी शती) और पंजाब के गुरु नानक देव (१५वी शती) ने भी हिंदी में रचना की हैं।  नामदेव पहले सगुणोपासक थे परन्तु अनुमानतः ज्ञानदेव जी के संपर्क में आने पर वे निर्गुणोपासक बन गए थे, इसलिए ही उनकी रचनाएँ सगुणोपासना और निर्गुणोपासना दोनों से सम्बंधित थी. गुरु नानक देव जी का सम्बन्ध की संप्रदाय से नहीं जोड़ा जा सकता है और इसलिए उनकी रचनाएँ कबीर की भांति थी परन्तु उतनी प्रखर नहीं थी.

४. भाषा, काव्यरूप और छंद
देश के मध्य देश की काव्य भाषा हिंदी-ब्रजभाषा का बहुत प्रचार प्रसार हुआ.  नामदेव ने मराठी और गुरु नानक देव ने पंजाबी भाषा के साथ साथ ब्रजभाषा (और खड़ी बोली) का भी प्रयोग किया। इसलिए भक्ति काल की मुख्या भाषा ब्रजभाषा ही रही. दूसरी भाषा भक्तिकाल की अवधी रही परन्तु ब्रजभाषा जैस व्यापक नहीं। अवधि में काव्य रचना प्रधानतः राम परक और अवध क्षेत्र के कवियों द्वारा ही हुई है. हिंदी के सूफी कवि भी मुख्यतः अवध क्षेत्र से ही थे.
                       भक्ति साहित्य अनेक छंदों और विधाओं में लिखा गया, किन्तु गेयपद और दोहा-चौपाई में निबद्ध कड़वक बद्धता उसके प्रधान रचना रूप हैं. नामदेव, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई आदि ने गेयपदों में रचनाएँ की हैं वहीँ

५. निर्गुण काव्य - ज्ञानाश्रयी शाखा
कबीर, रैदास, गुरु नानक, दादू दयाल आदि ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि कहे गए हैं क्योंकि इन संतों ने 'ज्ञान' पर सूफियों की अपेक्षा अधिक बल दिया।

६. निर्गुण काव्य - प्रेमाश्रयी शाखा
मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन आदि प्रेमाश्रयी शाखा की कवि हैं. सूफी काव्य के साथ साथ शुद्ध लौकिक प्रेम आख्यानों की परंपरा भी चलती रही. यह लौकिक प्रेम आख्यानों की परंपरा बहुत प्राचीन है जो ऐतिहासिक या कल्पित व्यक्तिओं के साथ किसी राजकुमारी, श्रेष्ठि पुत्री, गणिका या फिर अप्सरा के प्रेम कथा का वर्णन करती है. कालिदास ने मेघदूत में 'उदयन कथा कोविद' इसका उत्तम उदहारण है. जायसी द्वारा रचित पद्मावत प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है. यह काव्य चित्तोड़ के शासक रतनसेन और सिंघल देश की राजकन्या पद्मिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है.

७. सगुण राम भक्ति शाखा
तुलसीदास और नाभादास इस शाखा के मुख्य कवि हैं.  राम की उपासना निर्गुण और सगुण दोनों भक्त करते रहे हैं. राम नाम की उपासना कबीर और तुलसी दोनों करते हैं. अंतर राम के अर्थ को लेकर है. कबीर के राम दशरथ सुत नहीं है किन्तु तुलसी के राम दसरथ सुत हैं. हिंदी क्षेत्र के राम भक्त कवियों का सम्बन्ध रामानंद से है. रामानंद जी राघवानंद के शिष्य और रामानुजाचार्य की परंपरा के आचार्य थे. सभी वर्णों के लोग उनके शिष्य हो सकते थे. हिंदी के निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार के संत कवियों का सम्बन्ध उनसे जुड़ता है.

८. सगुण कृष्ण भक्ति शाखा
सूरदास, मीराबाई, रसखान, रहीम आदि इस शाखा के कवि हैं. महाप्रभु वल्लाभाचार्य ने कृष्णा भक्ति की दार्शनिक पीठिका तैयार की थी और देशाटन करके इस भक्ति का प्रचार भी किया। श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का चौड़ा रास्ता खुला और वल्लाभाचार्य ने दार्शनिक प्रतिपादन और प्रचार से उस रास्ते को सामान्य जान-सुलभ कराया।


                   इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्ति का शास्त्र यद्यपि दक्षिण में बना किन्तु उसका पूर्ण उत्कर्ष उत्तर में हुआ. भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था. भारत की सभी भाषाओँ और साहित्य पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव है. अतः उसने भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट किया। हिंदी साहित्य में भक्ति काल दीर्घ व्यापी लगभग तीन शताब्दियों तक प्रभावी रहा. शायद ही किसी अन्य भारतीय भाषा में इतनी संख्या में श्रेष्ठ कवी - कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी जैसे हुए हों और साथ ही हिंदी भक्ति साहित्य में मुसलमान कवियों का उत्तम योगदान भी अन्यत्र नहीं मिलता.


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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
http://gadyakosh.org/gk/हिन्दी_साहित्य_का_इतिहास_/_आचार्य_रामचंद्र_शुक्ल