Wednesday 4 February 2015

दिल्ली दरबार

आज फिर कुछ लिखने का मन कर रहा तो आज कल दिल्ली, भारत में चल रहे चुनावी दंगल की बात हो जाये. एक तरफ जहाँ भारत के प्रधान मंत्री की साख दाँव पर है तो दूसरी तरफ भारत की राजनीती में एक उभरते हुए व्यक्तित्व की विश्वसनीयता का प्रश्न है

दोनों तरफ ही राष्ट्रवाद और राजनैतिक सुधारवाद का बोलबाला है और दोनों ही पक्ष अपने अपने नेता के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध और विश्वस्त नज़रें आ रहे हैं.

परन्तु ऐसा लगता है की कुछ तो बात है जो प्रधान मंत्री जी की पार्टी को असमंजस मैं डाले हुए है. ऐसा में इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक प्रधान मत्री जी दिल्ली नगर में करीब ३ रैलियां सम्भोधित कर चुके हैं जो उनके कद के नेता के लिए बहुत ज्यादा है. याद कीजिये २०१४ के आम चुनाव की, प्रधान मत्री जी की एक चुनावी सभा उस पूरी डिस्ट्रिक्ट और कभी कभी पूरे राज्य विशेष के लिए पर्याप्त होती थी तो यहां क्या बात है की प्रधान मंत्री जी अभी कुछ और दिल्ली में आम सभाओं को संम्बोधित करने का मन बना रहे हैं. और इसके ऊपर, यदि खबरों की सुने, तो भाजपा ने अपने करीब १५० क्षेत्रीय और राष्ट्रीय नेताओं की फ़ौज लगा दी है चुनाव प्रचार में. उसके भी ऊपर भाजपा नें अपने कैडर के नेताओं पर विशवास न करके एक बाहरी उम्मीदवार श्रीमती किरण बेदी को मुख्य मंत्री के रूप में मैदान में लाना पड़ा.

यह सब कुछ करने के बाद भी भाजपा के शीर्ष नेता अपनी जीत तो सुनिश्चित बताने में हिचक ही रहें हैं.

दूसरी तरफ भी देश भक्ति और भ्रस्टाचार जैस ज्वलंत मुद्दों पर राजनीती का खाता खोलने वालों का आत्मा विशवास भी डोला हुआ दिख रहा है. बार बार ४९ दिनों में सरकार गिरा देने का प्रश्चाताप जनता के बीच में अपनी खोई हुई विश्वसनीयता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास ही लगता है. और उसके ऊपर से निरंतर साथ छोड़ते हुए पुराने साथी भी उनकी पार्टी के लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं. और आप पार्टी के नेता के अतिरिक्त कोई भी प्रभावशाली व्यक्तित्व का अभाव भी उनकी प्रशाशनिक क्षमताओं पर भी प्रश्नचिन्ह ही लगाता है.

काँग्रेस का तो सूपड़ा ही जैसे साफ़ दिखाई देता है. प्रभावशाली नेतृत्व क्षमताओं के रहते हुए भी उनकी विश्वनीयता आम जनता में गंभीरता रूप से सशंकित ही है और लगता है जैसे २०१४ के आम चुनाओ की ही भांति कांग्रेस पार्टी को मायूस ही होना पड़ेगा और ऐसा हाल फिलहाल में कराये गए सर्वेक्षणों से भी लगता है. परन्तु शायद अपनी इस स्थिति के लिए स्वयं काँग्रेस खुद ही जिम्मेदार है.

इसप्रकार से सभी पार्टियां कुछ भी अपने बारे में निश्चितता से नहीं कह सकती है कि चुनाओ के परिणाम उनके पक्ष में आएंगे या नहीं. परन्तु याद कीजिये ऐसा अभी कुछ महीन पहले ही हुए आम चुनाव में नहीं था और भाजपा मदमस्त हाथी की भांति विजय विजय का राग आलाप रही थी और जनता नें उसे सत्ता में आने का मौका भी दे दिया । और उसके साथ २-३ विधान सभा चुनाव में भी विजय दिलवाई।

ऐसा दिल्ली के चुनाओ मैं नहीं कहा जा सकता क्योंकि यही तो शायद लोकशाही की सुंदरता है की कुछ भी अनुमान लगा लीजिये परन्तु परिणाम जनता अपने विवेक से उचित समय पर उचित ही लेती रही है, वह चाहे इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी को उखाड़ फेकना हो या फिर मंडल कमंडल की चौकड़ी की सत्ता में पुनः वापसी ना करने देना हो.

अब प्रश्न यह उठता है की फिर किसको सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए, वैसे तो सबसे बड़ी दावेदारी, मेरी समझ में, आप पार्टी को है और इसका कारण भी है. कारण यह है कि भाजपा को काफी राज्यों में सरकार चलाने का अवसर मिल चुका है और उनके पास भाजपा शाशित राज्यों में जन कल्याण के कार्यक्रम चला सकते हैं और देश भक्ति और सुशासन का प्रमाण देने का अवसर है . दूसरी तरफ आप पार्टी को अभी तक पूरा अजमाना बाकी है, वे या तो ४९ दिनों मैं सरकार की जिम्मेदारिओं से भाग गए या फिर आम चुनाओ में पर्याप्त संख्या न प्राप्त कर सके.

और एक स्वस्थ लोक तांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है और भाजपा इस भूमिका को वर्तमान परिस्थिओं में सबसे अछे तरीके से निभा सकती है क्योकि उसकी. केंद्र में सरकार है और राज्य सरकार के गलतियों को जनता के सामने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ला सकती है.

अब रही बात कांग्रेस की तो अभी उसे थोड़ा सत्ता से बाहर रह कर आंदोलन का अभ्यास करना चाहिए और विधान सभी के अंदर और बाहर एक सकारात्मकता के साथ काम करते हुए सरकार और विपक्ष की विफलताओं को जनता के बीच में लाना चाहिए जिससे दिल्ली को भाजपा और आप दोनों के ही विकल्प के रूप में एक तीसरी राजनैतिक शक्ति मिल सके.