Friday 26 August 2011

हिंदी भाषा का इतिहास - IX : हिंदी भाषा का अंतर राष्ट्रीय परिपेक्ष

भोगौलिक दृष्टीकोण से हिंदी बोलने वाले सारे विश्व में मिलते हैं और इसीलिए ४ वर्ष में एक बार विश्व हिंदी सम्मेलन होता है. अभी तक हुए हिंदी सम्मेलन विश्व के अनेक शहरों जैसे नागपुर, दिल्ली, पोर्ट लोइस (मौरिशियस), लन्दन, सूरीनाम इत्यादि में हो चुके हैं. इसकी महत्ता को पहचानते हुए ही तो यूनाइटेड नेशन ने आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन अपने न्यूयोर्क ऑफिस में २००७ में करवाया था.
                    मेरा ऐसा मानना है कि इस परंपरा का लाभ उठा कर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक और कार्य चालन की भाषा बनाने के लिए भारत सरकार को कदम उठाना चाहिए. भारत में अंग्रेजी का जो वर्चस्व है उसके कारण विश्व में भ्रान्ति है कि भारत को समझने के लिए  भारतीय भाषाओँ को समझना जरूरी नहीं है. यह भ्रान्ति दूर कि जानी चाहिए और शिक्षा, शासन और दैनिक व्यवहार में भारतीय भाषाओँ का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए. वैसे संयुक्त राष्ट्र कि संस्थाओं में हिंदी का प्रवेश हो चुका है. यह यूनेस्को की एक अधिकारिक भाषा है.
                     हिंदी का विश्व व्यापी प्रचार और प्रसार आकस्मिक अथवा अप्रत्याशित नहीं हुआ है. इसका बहुत बड़ा श्रेय उन प्रवासी भारतीयों को हैं जिन्होंने अपनी हिंदी भाषा को संरक्षण प्रदान दिया. हम उन धरम गुरुओं और प्रचारकों को भी नहीं भुला सकते जिन्होंने हिंदी के माध्यम से अपने अपने मतों का प्रचार किया. इसी प्रकार उन व्यवसाईओं-व्यापारियों कि हिंदी सेवा का मूल्य भी हम शायद कभी आंक नहीं सकते हैं जिन्होंने व्यवसाय और व्यापार का माध्यम हिंदी को ही बनाये रखा.
                  विदेशों में स्थित भारतीयों के अतिरिक्त अनेक विदेशी विद्द्वानों ने भी हिंदी कि लोग संगत मर्यादा और महत्व को जान और पहचान लिया है. सन १६५५ में एडवर्ड टेरी ने अपनी पुस्तक "वोइस टु द इस्ट इन्डीस" में "हिन्दोस्तानी" को भारतीय बोलचाल की भाषा बताया है. सन १७०४ में तुरोनेसिस ने "लेक्सिकन लिंगुआ हिन्दोस्तानिका" नामक कृति प्रस्तुत की. ए हमिल्तन ने सन १७२७ में हिन्दुस्तानी को अपने एक यात्रा विवरण मुग़ल सुल्तान की एक सामान्य भाषा सूचित किया है. सन १८५२ में फ्रांस मैं दिए गए अपने एक भाषण में गार्सा-द-तासी ने 'हिन्दुई-हिन्दुस्तानी' को भारतीय लोकभाषा ठहराया था. इसी प्रकार सन १८८६ में लन्दन में प्रकाशित 'हाब्शन - जाब्शन' कोष में हिन्दुस्तानी (हिंदी) को भारतीयों की राष्ट्र भाषा स्वीकार किया गया है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है की विदेशी विद्वान भी हिंदी की वास्तविक स्थिती से परिचित होकर हिंदी सीखने के इच्छुक भी थे. अनेकों विदेशी राष्ट्रों में वहां के विद्वानों ने हिंदी सीखने और सीखाने की दिशा में काफी उत्साह दिखाया है.
                       विदेशों में हिंदी-प्रचार प्रसार हेतु भारत सरकार की ओर से भी प्रयत्न होते रहे हैं. दुनिया के कई देशों में भारत सरकार ने दूतावासों में  हिंदी अधिकारी की नियुक्ति की है. इन हिंदी अधिकारिओं की सहायता से वहां हिंदी के लेखन, हिंदी समाचार पत्रों के संपादन ओर प्रकाशन, रेडियो, दूर दर्शन के प्रसारण ओर हिंदी दिवस पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. ओर इनके आयोजन में इन हिंदी अधिकारिओं का भरपूर सहयोग रहता है. इस सन्दर्भ में उलेखनीय है की मौरिसिअस की भाषा त्रिऔल है जिसमे अनेकों भारतीय भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं. इसी प्रकार फिजी में संसद के अन्दर सदस्य फीजियन या फिर हिन्दुस्तानी में बोल सकता है. और वहां हिंदी की बहुत सी पत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता है जिनमे 'फिजी समाचार', 'शांति दूत', 'जाग्रति', जय फिजी, और सन्देश प्रमुख हैं. बर्मा के रंगून में ब्राह्मण सभा का ऊँचा भवन 'ब्रह्म निकेतन' बर्मा के हिंदी प्रसार के इतिहास का साक्षी रहा है. बर्मा के सभी जिलों में हिंदी पढ़ाने वाले स्कूल हैं. दक्षिण अफ्रीका में शादी व्याह और धार्मिक उत्सवों के समय ख़ास तौर पैर डरबन जैसे शहर में  तो जैसे हिंदी भजनों और संगीत की जैसे धूम सी मच जाती है.जापान में तो १९११ से 'टोक्यो स्कूल फॉर फ़ोरेंन लैंगवेजेस' में हिन्दोस्तानी की पढाई होती है.प्रेमचंद का गोदान, पन्त का स्वर्णकिरण इत्यादि तो जापानी भाषा में अनुदित हो चूका है. सोविएत पाठक तो हिंदी के सभी प्रमुख साहित्य कारों से सुपरिचित हैं. कबीर, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र कुमार, भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नगर, उपेन्द्र नाथ अश्क, इलाचंद्र जोशी, जयशंकर प्रशाद, निराला, सुमित्रा नंदन पन्त, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, राम धारी सिंह दिनकर, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, धरम वीर भारती इत्यादि हिंदी साहित्यकार तो सोविएत रूस में बहुत ही लोक प्रिय हैं. इनकी रचनाओ का तो अनुवाद भी हो चूका है.अमेरिका में लगभग ३०-३५ विश्व विद्यालओं में हिंदी के पठन और पाठन की व्यवस्था है. ब्रिटेन में हिंदी प्रसार भारती नामक संस्था हिंदी के प्रचार और प्रस्सर में संलग्न है. यह संस्था हिंदी की कक्षाएं नियमित रूप से चलती है और साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन करती है. 'प्रवासिनी' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन भी इस संस्था के द्वारा होता है. उपर्युक्त देशों के अतिरिक्त श्री लंका, हालैंड, फ़िलीपीन्स, वियतनाम, डेनमार्क, चीन, इजराइल, हांग कोंग, सूडान, वेस्ट इन्डीस, गुयाना, जैमैका, नेपाल, भूटान इत्यादि देशों में भी हिंदी के पठन और पाठन की उत्तम व्यवस्था हैं.  
                       विश्व के एक विशाल जन समूह की भाषा होने के कारण राष्ट्र संघ की भाषा बन सकती है.  हिंदी किसी भी क्षेत्र में विश्व की अन्य भाषाओँ से पीछे नहीं है बस केवल चाहिए कि हिंदी भाषी लोग और विशेषतः भारत सरकार अपनी इच्छा शक्ति दिखाये और हिंदी को उसका विश्व स्तरीय गौरव दिलाये. और फिर जनसँख्या, सम्रद्धि और अंतर्राष्ट्रीय संपर्क कि दृष्टी से भी हिंदी का स्थान विश्व कि अन्य भाषाओँ कि तुलना में कम महत्वपूर्ण नहीं है.
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सहायक ग्रन्थ सूची :

राष्ट्र भाषा की समस्या - डॉक्टर राम विलास शर्मा
राज भाषा हिंदी - डॉ मालिक मोहम्मद    
भारतीय राष्ट्र भाषा - सीमायें और समस्याएं - डॉ सत्यव्रत
संपर्क भाषा हिंदी - डॉ लक्ष्मी नारायण गुप्त