Saturday 17 December 2016

एक सराहनीय प्रयास

भारत में आजकल नोट बंदी चल रही है, ५०० और १००० रुपये के नोट भारतीय केंद्रीय सरकार ने वापस ले लिए हैं. इस समय मैं   स्वयं भी भारत में हूँ और नोट बंदी और बदलवाने के इस राष्ट्रीय पर्व का साक्षी हूँ. मैं भी यदा कदा बैंकों की पंक्तियों में खड़ा होकर आम भारतीय होने पर गर्व महसूस करता हूँ. यहाँ मुझे  अपने अन्य भारतीय भाइयों और बहनों की तरह ही कॅश लेने, नोट बदलवाने और जमा करवाने के लिए पंक्तियों में खड़ा होना पड़ता है. बड़ा ही सुन्दर  नज़ारा है.
वैसे तो  मैं जब भी भारत आता हूँ तो भारत के विकास की अनछुई और बिन कही तमाम बताओं को समझने  का प्रयास करता हूँ. जैसे स्वछ भारत में क्यों लोग, विशेषतः बच्चे, शहर के मुख्य बाजार चौराहों में आज भी मल-मूत्र करते दिखते हैं, सरकार की जन धन योजना होने पर भी मज़दूरों और किसानों की बैंक खतों में कुछ सौ रुपये ही दिखाई देते है. रेलवे के रिजर्वेशन काउंटर में बैठे कर्मचारियों को अपने ही काउंटर (संसद सदस्य, विधायक, विदेशी सैलानी आदि )के बारे मैं ठीक से जानकारी नहीं है.
 हाँ तो बात मैं नोट बंदी की कर रहा था, तो यह एक निश्चित रूप से सराहनीय प्रयास है परन्तु देखना दिलचस्प होगा कि इस तथाकथित लड़ाई में भ्रस्टाचार के शीर्ष पर बैठे हुए भारत के राज नेताओं का क्या होता क्योंकि शायद भारत की वर्तमान स्थिति के लिए राजनैतिक दलो का धन सञ्चालन (डोनेशन्स एंड कलेक्शन्स) ही सबसे पहले शक के दायरे में है. भारतीय जीवन की रोज की  जद्दोजहद में ऐसा लगता है कि हर भ्रष्ट नागरिक राजनीति के इस ब्लैक होल (काली सुरंग) को ही भरने के येन केन प्रकारेण  प्रयास में लगा हुआ है. सरकार के इस नोट बंदी के प्रयास से आपेक्षा रहेगी कि भारत की ईमानदार और कर्त्तव्य परायण जनता को एक बार फिर से भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीतिक जीवन के प्रति विश्वास जागे और उसका जीवन सुचारू रूप से चल सकेगा।
मैं कुछ दिनों में भारत से चला जाऊंगा परतु आशा है सरकार के इस सराहनीय प्रयास का आम आदमी के जीवन में जल्दी से जल्दी असर दिखाई देगा और निकट भविष्य में यह कॅश और भ्रस्टाचार की अर्थव्यवस्था पर अंकुश जरूर लगेगा।
कुछ समय पश्चात........
मेरे भारत से लौटने के बाद समाचार सुनायी देता है कि राजनैतिक दलो को पुराने ५०० और १००० के नोट जमा करने पर कोई पाबन्दी नहीं है तो फि र अब और क्या कहें इसके अलावा .......रामा-ओ-रामा .......   

Saturday 18 June 2016

हिंदी साहित्य का इतिहास - III : भक्तिकाल १४००-१७०० - भाग एक

भाग एक 

भक्ति साहित्य का आधार भक्ति आंदोलन है, इसका अर्थ हुआ की भक्ति  साहित्य की एक वैचारिक भूमि थी. भक्ति आंदोलन की विशेषता यह बताई गयी है की इसमें धर्म साधना का नहीं वरन भावना का विषय बन गया था. महाराष्ट्र के संत नामदेव (जन्म सन् १२५६ ई) की रचनाओं से हिंदी में भक्ति साहित्य की प्रधान प्रवृति बनी रही. इस धार्मिक और साहित्यिक आंदोलन ने हिंदी को कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा जैसे कवि दिए. इनकी कवितायेँ इतनी लोकप्रिय एवं उत्तम हैं की भक्ति कल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है.

पं हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार भक्ति आंदोलन भारतीय चिंता-धारा का स्वाभाविक विकास है.नाथ सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद और जातिगत कठोरता, दक्षिण भारत से आई हुई धारा में घुल मिल गयी, ऐसा प्रतीत होता है. पं रामचन्द्र शुक्ल जी भी इसके ऐतिहासिक आधार पर टिप्पड़ी करते हुए कहते हैं कि दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को उत्तर भारत ने बड़े ही  व्यापक रूप में अपना लिया था. 

शायद इसका कारण दक्षिण भारत की उस समय (१३वी शताब्दी एवं १४ वी शताब्दी ) की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थितियां स्पष्ठ करती हैं जिसने अवर्णों एवंम स्त्रियों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठने के लिए एक नया मार्ग ढूंढने की ओर प्रेरित किया, लेकिन यह काम किसी सुसंगत विचारधारा अथवा दर्शन के बिना नहीं हो सकता था. दर्शन के दो अंग होते हैं - तत्त्व बोध और उसी के अनुकूल उत्पन्न साधना मार्ग जिसे आजकल जीवन दर्शन कहते हैं. 

इस विषय में शंकराचार्य (जन्म सन् ७८८ ई) का अद्वैत और रामानुजाचार्य (जन्म सन् १०१७ ई) का विशिष्टाद्वैत को एक साथ देखना चाहिए। शंकराचार्य जगत को मिथ्या और ब्रह्म को विशेषण रहित। दूसरी ओर रामानुजाचार्य जगत को मिथ्या नहीं वरन वास्तविक मानते थे और ब्रह्म को विशेषणयुक्त। उनके अनुसार इस जगत को वास्तविक मानकर उसे महत्त्व देने में ही भक्ति की लोकोन्मुख्ता एवं करुणा है.  

भक्ति तो पहले भी थी परन्तु वह केवल साधना मात्र थी, आंदोलन नहीं. ऐतिहासिक स्थितियों की अनुकूलता में वह प्रवत्ति व्यापक एवं तीव्र होकर धार्मिक आंदोलन बन गयी. 

शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य के समय की ऐतिहासिक परिस्थियां भी इसी और चिन्हित करती हैं कि अवर्णों को सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से ऊपर उठाने की निसंदेह चेष्ठा की गयी थी.  दक्षिण भारत में पहली शताब्दी के बाद कई शताब्दियों तक राज सत्ता पराक्रमी शासकों के हाथ में रही. संगम काल में चोलवंशी शासक करिकाल ने कावेरी नदी के जल को नियंत्रित करके सिचाई के व्यवस्था की थी और एक प्रसिद्ध बंदरगाह भी बनवाया था. कांचीपुरम पल्लवों की राजधानी थी, ७ वीं शताब्दी के अंतिम और ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पल्लब शासक नर्सिंग वर्मन ने स्थापत्य को अत्याधिक बढ़ावा दिया और उसने कांची का प्रसिद्ध राजसिंघेश्वर मंदिर बनवाया। उसके समय में चित्रकला की भी बहुत उन्नति हुई थी. इस सब से कांची में शिल्पियों को बहुत सम्मान मिला। मद्रास म्यूजियम के उत्तम चोला ताम्रपत्र के अनुसार कांची पुरम के बुनकरों को स्थनीय मंदिर की वित्तीय देखभाल का काम सौंपा गया था. इससे बुनकरों को व्यापारियों-वैश्यों जैसा ही सम्मान मिला। इसके अतिरिक्त आचार्य रामानुज का जन्म कांची पुरम के पास हुआ था, वे अधधयन के लिए बचपन में ही कांचीपुरम आ गए थे. वहां उनकी भेंट कांचीपूर्ण से हुए. कांचीपूर्ण रामानुजाचार्य के शूद्र गुरु थे. यह भी विदित है की प्रसिद्ध वैष्णव अलवार संत-कवि दक्षिण में ही थे, इन्ही में एक महिला 'अंदाल' भी थी और प्रसिद्ध अलवार नाम्म या शठकोप शुद्र थे.  

रामानुजाचार्य की ही परंपरा में रामानन्द (जन्म सन् १३०० ई के आस पास ) हुए जिनके बारे में कहा जाता है की वे भक्ति को दक्षिण से उत्तर में लाये।

जैसी स्थिति उत्तर भारत में १३ वीं  और १४ वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए वह, जैसा ऊपर बताया गया है, दक्षिण में पहली शताब्दी के बाद ही पैदा हो गयी थी. इसी समय दिल्ली सल्तनत (१३ वीं) से मुस्लिम शासकों का शासन भी शुरू हो गया था और 16वीं शताब्दी में तो मुग़ल शासक तमाम खुनी लड़ाईयों के बाद पूर्णतया स्थापित हो गए थे. इसलिए शायद डॉ रामचद्र शुक्ल जी इसे इस्लामी आक्रमण से पराजित हिन्दू जनता की असहाय एवं निराश मनस्थिति से जोड़ा था. वे एक और इससे दक्षिण भारत से आया हुआ मानते थे, दूसरी ओर  यह भी मानते थे की अपने पौरुष से निराश-हताश जाति के लिए भगवान् की सकती और करुणा के ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था. हो सकता है शुक्ल जी इस उदासी और निराशा को भक्ति का कारण  न बता रहे हों वरन वे उत्तर भारत की हिन्दू जनता की उस मानसिकता को बता रहे हों जिसने दक्षिण भारत से आये हुए भक्ति मार्ग को इतने व्यापक रूप में अपना लिया था. 

हिंदी साहित्य के चारों कालों को देखने से पता चलता है की साहित्य के योगदान में अवर्णों और नारियो की सह स्थिति हैं. हिंदी में अवर्ण साहित्यकार अधिक संख्या में या तो भक्ति काल में हुए या फिर आधुनिक काल में. नारी रचनाकारों की भी कमोवेश यही स्थिति है.  

 अपने अगले भाग में हम भक्ति काल के सम्प्रदायों, कवियों और निर्गुण-सगुण  पर चर्चा करेंगे..... धन्यवाद

---------------
सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
http://gadyakosh.org/gk/हिन्दी_साहित्य_का_इतिहास_/_आचार्य_रामचंद्र_शुक्ल


Thursday 12 May 2016

सुनिए प्रधानमत्री जी

आज मैं बात करूँगा उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार की वापसी की. हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड में बर्खास्त की गयी कांग्रेस की सरकार को वापस बहुमत साबित करने का मौका दे कर केंद्रीय सरकार की मंशा पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाया है और राष्ट्रपति शासन को हटा कर निर्वाचित सरकार को फिर से काम करने का मौका दिया. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय सराहनीय है. 

परन्तु क्या हो गया है मोदी सरकार को. मोदी सरकार तो ऐसा लग रहा है जैसे कांग्रेस साफ़ के स्थान पर कांग्रेस की भांति कार्य करने पर उतारू है. यह तो एक किताबी संवैधानिक ज्ञान है की यदि थोड़ा भी प्रांतीय सरकार के बहुमत साबित करने की सम्भावना होती है तो एक जिम्मेदार केंद्रीय सरकार का यह दायित्व है कि वह प्रांतीय सरकार तो बहुमत साबित करने का पूरा अवसर दे मगर मोदी सरकार तो लगता है की राष्ट्रपति शासन लगने की इतनी जल्दी थी की उसने उत्तराखंड सरकार को इसका मौका ही नहीं दिया और आनन फानन में राष्ट्रपति शासंन लगा दिया. अपने इस कृत्य से मोदी सरकार पर तानाशाही होने के आरोपों को बल मिलता है. लोकतंत्र जिम्मेदारी से चलता है न की मन मानी से. देश की कोटि कोटि जनता ने श्री मोदी जी को बहुत आशा और विशवास के साथ २०१४ के लोकसभा चुनाव में बहुमत दिया है इस विश्वास के साथ कि भारत माता  का यह बालक अपने जीवन के अनुभवों से देश के जनता का दुःख दर्द ज्यादा अच्छे तरीके से समझ कर उन्हें दूर करने में कोई कोर कसर नहीं रखेगा। इसलिए हमारे प्रधानमत्री मोदी जी का यह नैतिक दायित्व है कि वे जनता के इस भाव को अच्छे से समझे और उस दिशा में निरंतर कार्य करें अन्यथा ऐसा न हो क़ि जनता की कांग्रेस के विकल्प के तौर पर सरकार चुनने की इच्छा और अपेक्षा दोनों ही समाप्त हो जाये और पुनः कांग्रेस आने वाले कई वर्षों तक फिर सत्ता रूढ़ हो जाये और कांग्रेस मुक्त भारत का सपना सपना ही रह जाये. और यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल में गैर कांग्रेस सरकार का एक प्रयोग पहले ही असफल हो चूका है.  

यदि मोदी सरकार का यह अलोकतांत्रिक मंतव्य किसी  राजनैतिक अथवा अराजनैतिक सलाह का परिणाम है तो यह जिम्मेदारी भी प्रधानमत्री महोदय की है को वे अपने सलाकारों पर नियंत्रण रखें और स्वस्थ लोकतंत्र का पाठ याद दिलाएं कि लोकत्रंत्र में नर ही नारायण होना चाहिए और उसके हेतु ही सारी योजनाएं केंद्रित रहनी चाहिए। 

भारत बहुत बड़ा और विकट भिन्नताओं वाला देश है और इसकी आवश्यकताएँ भी असीमित है. कुछ भारतमाता की संतानें गरीबी के चरम पर जीवन यापन करने को विवश है, कुछ नौजवान बेरोजगारी से ग्रसित हैं, बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उस पर शिक्षा, स्वास्थ, सूखा, बाढ़, आपदा, सामान्य जीवन हेतु अत्यन्त अल्प आवश्यकताओं हेतु भारत माता की संतानें प्रतिदिन संघर्ष करती है. और उसके ऊपर कुछ लोग तो हर पल भारत माता को कलंकित और आहत करने को तत्पर हैं. 

ऐसे में प्रधानमत्री जी यदि इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने पूर्ण सामर्थ्य और क्षमता से कार्य करें तो ही निसंदेह वे भाजपा के "चाल चरित्र और चेहरा" वाले नारे को चरितार्थ कर पाएंगे अन्यथा यह नारा नारा ही रह जायेगा और भारत माता को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगेगी।