भाषा शब्द संस्कृत का है जिसकी उत्पत्ति व्यक्तवाणयर्थक 'भाष' धातु से है परन्तु लोक-व्यवहार में इसका प्रयोग अत्यंत व्यापक अर्थ में किया जाता है-' दूसरों तक अपना अभिप्राय पहुँचाने का साधन - कैसी भी मूक अथवा मुखर '.
मूक साधन वो हैं जिनमे वाणी का प्रयोग बिलकुल नहीं होता है. ऐसे साधन भी दो प्रकार के माने गए हैं - इंकित और संकेतमय.
इंकितमय साधनों में विभिन्न प्रकार की आंगिक चेष्टाएँ आती हैं यथा ऑंखें मटकाना, पैर पटकना और गर्दन हिलाना इत्यादि. संकेतमय साधन अंग-वाह्य होते हैं. इन संकेतों में आज भी अभिप्राय-प्रेषण की क्षमता मौजूद है जैसे सिपाही का सिटी बजाना, रेलवे गार्ड की हरी-लाल झंडी, चुराहे की लाल-पीली-हरी बत्ती इत्यादि. कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मूक साधनों से एक सीमा तक ही अपनी बात पहुचाई जा सकती है.
इसी प्रकार से मुखर साधन (जिसमे वाणी का प्रयोग होता है) भी अव्यक्त और व्यक्त दोनों तरह के होते हैं.
अव्यक्त साधन मानवेतर पशु-पक्षी और जीव-जंतु द्वारा अपने जाते हैं जैसे किसी भी समय यह देखा जा सकता है की शत्रु पक्षी / पशु को निहार कर पक्षी और पशु विशेष प्रकार की ध्वनि करते हैं जिससे अन्य पक्षी और पशु चौकाने होकर वो ही ध्वनि निकालने लगते हैं.
व्यक्त वक् केवल मनुष्य की है. जिसका स्वरुप निश्चित है, जिसकी संरचना सर्व स्वीकृत है. अत: सीखना और सीखाना तनिक से श्रम से ही संभव है तथा जिसका अध्धन -विश्लेषण संभव है. इस वाक् में भी निरर्थक ध्वनियाँ हो सकती हैं. भाषा विज्ञान की अध्येय वाक् सार्थक ध्वनि समूह हिया. वो ही 'भाषा' है.
बाबु श्याम सुन्दर दास जी ने कहा है "विचार की अभिव्यक्ति के लिए व्यक्त ध्वनि संकेंतो के व्यवहार को ही भाषा कहते हैं (भाषा रहस्य, प 43)
ए एच गार्डिनर कहते हैं - 'विचाराव्यक्ति के लिए व्यक्त ध्वनि संकेंतो का प्रयोग भाषा कि सर्वमान्य परिभाषा है. (स्पीच और लैंगग्वज)भाषा के विभिन्न रूप - यों तो भाषा के अनेकानेक रूप हैं, या कहो जितने व्यक्ति हैं, भाषा के उतने ही प्रकार हैं. फिर भी सामान्यत: उनके निम्लिखित रूप प्रचलित हैं.
(i) व्यक्ति-बोली (ईडियोलेक्ट) - भाषा का यह लघुतम रूप है. अपने परिवेश, संस्कारों और स्तर के हिसाब से व्यक्ति की बोली में एक प्रकार की विशेषता आ जाती है. इसी कारण से एक व्यक्ति कि बोली दूसरे व्यक्ति से भिन्न हो जाती है.
(ii) बोली (सब-डाईलेक्ट) - छोटे से क्षेत्र की व्यक्ति-बोलीओं का सामूहिक रूप बोली है. यह नितांत स्थानीय है जिसमे साहित्यिक रचनाएँ नहीं होती हैं.
(iii) उपभाषा / विभाषा (डाईलेक्ट) - एक प्रान्त के बोल चाल की और साहित्यिक रचना की भाषा विभाषा कहलाती है. एक विभाषा में अनेकों बोलियाँ हो सकती हैं. हिंदी भाषा है, कड़ी बोली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि विभाषाएं, जिनके अंतर्गत अनेकों बोलियाँ हैं जैसे मेरठ की बोली, सहारनपुर की बोली, मथुरा की बोली, एटा की बोली आदि आदि. जब विभाषा में साहित्य प्रभूत मात्र में रच जाता है तब वो भाषा की पदवी पा लेती है जैसे ब्रजभाषा, अवधी या आज की खड़ी बोली.
(iv) मानक भाषा (स्टैन्डर्ड भाषा)- इसी को आदर्श या मानक भाषा कहते हैं. व्याकरण की नज़र से यह एकरूपा होती है. होती तो यह भी आरम्भ में विभाषा ही परन्तु अपनी साहित्यिक श्रेष्टता के कारण अपनी सहोदर विभाषाओं पर श्रेष्टता स्थापित कर सब के लिए आदर्श बन जाती है. बाबु श्याम सुन्दर दास इसीलिए इसे 'कई विभाषाओं में व्यवहृत होने वाली शिष्ट-परिग्रहित विभाषा' कहते हैं (भाषा विज्ञान, प २३).
(v) राष्ट्र भाषा (नेशनल लैंगग्वज) और राज भाषा (अफिशल लैंगग्वज) : मानक भाषा जब अनेकों क्षेत्रों में अभिव्यंजन का माध्यम बन जाती है तब वो राष्ट्र भाषा कहलाती है. सामान्यतः इसी में सरकारी काम काज होता है तब यह राज भाषा कहलाती है.
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सहायक ग्रन्थ सूची :
हिंदी साहित्य का संछिप्त इतिहास - NCERT - कक्षा १२
हिंदी सही लिखिए : डॉ रामरजपाल द्विवेदी
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