Thursday 30 December 2010

हिंदी भाषा का इतिहास - VI : अंग्रेजी राज और हिंदी

अंग्रेजों के शासन की स्थापना के समय प्रमुख भाषाएँ निम्नवत थीं:

१. अंग्रेजी भाषा जो कंपनी की अपनी भाषा थी
२. फ़ारसी जो मुस्लिम शासनकाल से देश की राज भाषा चली आ रही थी.
३. देसी भाषाएँ जो क्षेत्रीय भाषाएँ थीं और जिनमे हिंदी का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण था.

अंग्रेजी चूँकि उनकी अपनी भाषा थी इसलिए वह उसे ही राज भाषा बनाना चाहते थे. अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद कुछ भारतीय नेता भी उसके प्रति विशेष आकर्षित हुए और उसी के द्वारा भारतीयों को शिक्षा प्रदान करने की बात सोचने लगे, क्योंकि उन दिनों आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा के लिए अंग्रेजी को ही ज्यादा उपयुक्त समझा जाने लगा था. यह मानसिकता आज़ादी मिलने के बाद भी बनी रही और इसका परिणाम यह हुआ की आज भी हम देश की राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी को भारत के सभी समुदाय और क्षेत्र के लोगों को स्वीकृत नहीं करवा पाए.

अंग्रेजों द्वारा अपनाई गयी भाषा नीति में देवनागरी और फारसी दोनों ही भाषाओँ को स्थान दिया. उन्होंने अपने सिक्कों और स्टाम्पों में फ़ारसी के साथ साथ नागरी लिपि को भी स्थान दिया. यह काफी भ्रामक स्थिति थी क्योंकि फारसी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं थी और नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू का प्रचलन बढ़ गया था.
स्वयं अंग्रेज अधिकारी गण इस विचार का प्रतिपादन करते थे. अंग्रेज विद्वान् गौस ने लिखा है 'आजकल की कचहरी की भाषा बड़ी कष्ट दायक है क्योंकि एक तो यह विदेशी है और दूसरे, इसे भारतवासिओं का अधिकाँश भाग नहीं जानता ' (स्वंतंत्रता पूर्व हिंदी के संघर्ष का इतिहास - रामगोपाल पृ 29 )
इस तथ्य से विचार पैदा हुआ की जन साधारण की भाषा हिंदी है न कि फ़ारसी पूरित उर्दू . इसलिए सन १८७० में सरकार ने एक आज्ञा पत्र जारी किया जिसमे कहा गया था कि ऐसी भाषा का उपयोग बढ़ना चाहिए जो एक कुलीन भारतीय फ़ारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहते हुए भी बोलता है.

यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हिंदी उर्दू में मूलतः व्याकरण भेद ही है. हिंदी का आधार संस्कृत है और उर्दू के लिए लोग फ़ारसी अरबी की सहायता लेते हैं. कुछ लोगों का तो यह भी मानना है की उर्दू कोई अलग भाषा नहीं है बल्कि वह हिंदी की ही एक साहित्यिक शैली मात्र है. डॉक्टर सुनीति कुमार चतुर्ज्र्या के अनुसार "सोलहवी शती में मुसलमान कविओं के द्वारा हिंदी को जाने या अनजाने फ़ारसी लिपि में लिखने के प्रयत्न में ही इस झगड़े के सूक्ष्म अंकुर निहित थे "  

इसके परिणाम स्वरुप ही हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का वाद विवाद खड़ा हुआ. कंपनी की भाषा नीति का जो दुष्परिणाम निकला उसके बार में डॉक्टर सरनाम सिंह ने ठीक ही लिखा है - "अंग्रेजी शासनकाल की स्थापना से भाषा के क्षेत्र में एक विस्फोटक भावना का प्रजनन हुआ. धर्म की आढ़ में कूटनीतिक चालों को पोषित करने का अवसर लेकर शासकओं ने अपना उल्लू सीधा करने की चेष्टा की. उन्होंने 'हिन्दुस्तानी ' शब्द से एक ऐसे विष का प्रादुर्भाव किया, जो बढता और फैलता गया. हिंदी और उर्दू के सम्बन्ध में उससे एक निश्चित भेद दृष्टी हो गयी."

सूक्ष्म दृष्टी से देखने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि कंपनी भाषा नीति के विषय में सच्ची और ईमानदार नहीं थी. भाषा के क्षेत्र में वो ऐसी भ्रामक स्थिति पैदा करना चाहती थी जिससे सामान्य जनता को कठिनाई हो और उनकी भाषा सम्बन्धी भावनाओं को ठेस पहुंचे. अंग्रेजों ने जिस भाषा नीति को अपनाया और उसका पोषण कंपनी द्वारा स्थापित फोर्ट विल्लिंम कालेज ने किया. फोर्ट विल्लिंम कालेज की स्थापना लोर्ड वेलेजली (१७९८ - १८०५) द्वारा सैनिक और असैनिक कर्मचारिओं के लिए देसी भाषाओँ के अध्धयन के उद्देस्य से की गयी थी. यहाँ जिस भाषा को प्रोत्साहन दिया जाता था वह वस्तुत: 'हिन्दुस्तानी' कहलाती थी. उसमे अरबी-फ़ारसी का बाहुल्य रहता था परन्तु मूल ढांचा देवनागरी हिंदी पर ही आधारित था.
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सहायक ग्रन्थ सूची :

राज भाषा हिंदी - डॉ मालिक मोहम्मद
भारतीय आर्यभाषा और हिंदी - डॉक्टर सुनीति कुमार चतुर्ज्र्या
हिंदी का राजभाषा के रूप में विकास - डॉक्टर शिवराज शर्मा

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